SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७८ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ तदप्यसंबद्धम्-आगमान्तरेऽपि 'कर्तुः स्मरणयोग्यत्वे सत्यस्मर्यमाणकर्तृ कत्वाद्' इत्यस्य हेतोः सद्भावबाधकप्रमाणाभावेन सद्भावसभवाव संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनकान्तिकत्वस्य तदवस्थत्वात् । किंच, विपक्षविरुद्धं हि विशेषणं विपक्षाव्द्यावर्तमान स्वविशेष्यमादाय निवर्तते इति युक्तम् , न च पौरुषेयत्वेन सह कर्तुः स्मरणयोग्यत्वस्य सहानवस्थानलक्षणः, परस्परपरिहारस्थितलक्षणो वा विरोधः सिद्धः। सिद्धौ वा तत एव साध्यसिद्धेः 'अस्मयमाणकत कत्वात्' इति विशेष्योपादानं व्यर्थम् । का स्मरण भी अवश्य होता । कारण यह है कि वेदोक्त अर्थ के अनुष्ठाता को अदृष्टफलक क्रियाओं में उनके फल के विषय में सत्यत्व का निश्चय हो तभी नि संदेह हो कर उन क्रियाओं में प्रवृत्ति करते हैं । फल के विषय में सत्यत्व का यानी फलाऽव्यभिचार का निर्णय तभी हो सकता है यदि उसके उपदेशक का स्मरण हो। उदा० पत्र-परिवार आदि को अपने पिता आदि में प्रामाण्य का पर जिन क्रियाओं का फल अपने को अदृष्ट हैं ऐसी क्रियाओं में भी पिता आदि के उपदेश से प्रवृत्ति होती है 'हमारे पिता आदि ने इसका उपदेश किया है इस लिये ह लिये हमारे द्वारा यह अनुष्ठान रहा है ऐसा समझ कर । इस प्रकार वैदिक कर्मों के अनुष्ठान काल में भी यदि कोई वेद कर्ता उपदेशक होता तो उसका स्मरण अवश्य किया जाता। किंतु वेदोक्त अर्थ के अनुष्ठाता ब्राह्मण-क्षत्रिय या वैश्य विश्वसनीय होने पर भी किसी को वेद कर्ता का स्मरण नहीं है। इस प्रकार कर्ता स्मरणयोग्य होने पर भी उसका स्मरण न होने से वेद अपौरुषेय सिद्ध होते हैं। तो अब हमारे अनुमान में उक्त हेतु का अर्थ यह है कि-'कर्ता स्मरणयोग्य होने पर भी कर्ता को स्मृति न होने से' वेद अपौरुषेय हैं। जिन भावों का कर्ता सिद्ध होने पर भी उसका स्मरण नहीं हो रहा है वहाँ तो उसका का स्मरणयोग्य ही नहीं है इस लिये स्मरणयोग्यत्वे सति अमर्यमाणक कत्व' रूप सविशेषण हेतु उन भावों में अविद्यमान होने से अनैकान्तिक दोष निरवकाश है । जो पौरुषेय होता है, उसमें यदि कर्ता का स्मरण होता है तो अस्मर्यमाणकत कत्व विशेप्य नहीं रहेगा और यदि रहेगा तो उसका का स्मरणयोग्य न होने से उनमें विशेषण नहीं रहेगा, अर्थात सविशेषण हेतु की विद्यमानता उसमें न रहने से हेतु में विरोध दोष का संभव नहीं है। विरुद्ध इसको कहते है जो विपक्ष में ही रहे और सपक्ष पौरुषेयरूप में प्रसिद्ध सिद्धकर्तृक भाव यहाँ विपक्ष है, उसमें यह सविशेषण हेतु रहता ही नहीं है, आकाशादि अपौरुषेय सपक्ष हैं उसमें यह सविशेषण हेतु अविद्यमान नहीं है किंतु विद्यमान है। इस प्रकार विशुद्ध अन्वय-व्यतिरेकशाली हेतु का पक्ष में सद्भाव होने से यानी 'कत्ता स्मरणयोग्य होने पर भी अस्मर्यमाणकर्तृकत्व' हेतु से वेद अपौरुषेय सिद्ध होता है । । स्मरणयोग्यत्व घटित हेतु अन्य आगम में संदिग्धव्यभिचारी है ] उत्तरपक्षी.-अपौरुषेय वादी का यह पूरा कथन संबंधविहीन है। कारण, सविशेषण हेतु में भी । अनैकान्तिक दोष तदवस्थ ही है । जैसे-अन्य बौद्धादि आगम में भी 'कर्ता स्मरणयोग्य होने पर अमर्यमाणकर्तृकत्व' रूप हेतु के सद्भाव मे कोई भी बाधक प्रमाण न होने से अन्य आगम में भी इस हेतु के सद्भाव की शंका का संभव है, किंतु वहाँ साध्य नहीं है, अतः हेतु की विपक्ष से निवृति संदिग्ध होने से अनैकान्तिक दोष अनिवार्य रहेगा । दूसरी बात यह है-विशेषण यदि विपक्ष का विरोधी होता तब तो विपक्ष से व्यावृत्त होता हुआ वह विशेष्य को भी विपक्ष से निवृत्त कर देता, यह ठीक है । किंतु पौरुषेय भावरूप विपक्ष के साथ स्मरणयोग्यत्वरूप विशेषण का न तो सहानवस्थानरूप विरोध सिद्ध है, न तो परस्परपरिहारस्थितिस्वरूप विरोध प्रसिद्ध है । तब उसको विपक्ष से व्यावृत्ति कैसे मानी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy