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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
निविशेषणस्य निश्चितकर्तृ केषु भारतादिष्वपि भावादनकान्तिकत्वम् । किंच, कि यथाभूतानां पुरुषाणामध्ययनपूर्वकं दृष्टं तथाभूतानामेवाध्ययनवाच्यत्वमध्ययनपूर्वकत्वं साधयति, उतान्यथाभूतानाम् ? यदि तथाभूतानां तदा सिद्ध साधनम् । अथाऽन्यथाभूतानां तदा संनिवेशादिवदप्रयोजको हेतुः।
___ अथ तथाभूतानामेव साधयति । न च सिद्धसाधनम् , सर्वपुरुषाणामतीन्द्रियार्थदर्शनशक्तिवै. कल्येन अतीन्द्रियार्थप्रतिपादकप्रेरणाप्रणेतत्वासामर्थ्य नेशत्वात । स्यादेतद्यदि प्रेरणायास्तथाभतार्थप्रतिपादनेऽप्रामाण्याभावः सिद्धः स्यात, यावता गुणवद्वक्तरभावे तद् गुणैरनिराकृतैर्दोषैरपोदितत्वात् सापवादं प्रामाण्यमित्युक्तम् । तथाभतां च प्रेरणामतीन्द्रियदर्शनशक्तिविकला अपि कर्तुं समर्था इति कुतस्तथाभूतप्रेरणाप्रणेतृत्वाऽसामर्थ्येन सर्वपुरुषाणामीशत्वसिद्धिर्यतः सिद्धसाधनं न स्याव? वाच्यत्व यानी क्या ? A अध्ययनशब्द निरूपितवाच्यता अथवा B कर्ता की स्मृति न होना ? तथा, प्रथम पक्ष में-A1 अपौरुषेयत्वसाधक हेतु A2 विशेषणशून्य ही समझना या 'कर्तृ-अस्मरण होने पर' ऐसा विशेषण लगाना है ? A1 यदि विशेषण नहीं लगायेंगे तब तो जिसके कर्ता प्रसिद्ध हैं ऐसे महाभारतादि में भी अनेक अध्ययन होने से अध्ययनशब्दवाच्यता हेतु रह जायेगा किंतु साध्य वहाँ नहीं है तो हेतु साध्य का द्रोही [व्यभिचारी] हुआ।
दूसरी बात यह है- जिस प्रकार के पुरुषों [अर्वाग्दी पुरुषों का अध्ययन गुरुपरम्परापूर्वक देखा जाता है, क्या वैसे ही पुरुषों के अध्ययन में ही अध्ययन शब्दवाच्यत्व से अध्ययनपूर्वकत्व सिद्ध करना चाहते हो ? या उन से भिन्न [सर्वज्ञ आदि ] पुरुषों के अध्ययन में भी ? प्रथम पक्ष में अर्वाग्दर्शी पुरुषों का अध्ययन अध्ययनपूर्वक ही होता है-इसको हम भी मानते हैं तो सिद्धसाधन ही हुआ। अगर दूसरे पक्ष में-अल्पप्रज्ञावाले पुरुषों से भिन्न पुरुषों के अध्ययन में भी अध्ययनपूर्वकत्व सिद्ध करना चाहते हो तो हेतु में अप्रयोजकत्व दोष उपस्थित होगा जैसे कि पहले बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व की सिद्धि में संनिवेश आदि हेतु को अप्रयोजक दिखाया गया है। तात्पर्य यह है कि-तीक्ष्ण प्रज्ञावाले विद्वानों से किये गये वेदाध्ययन में वेदाध्ययनवाच्यत्व हेतु तो रहता है किंतु वहाँ वेदाध्ययनपूर्वकत्व नहीं भी होता है अत: साध्य विना हेतु रह गया।
[ तथाभूतपुरुष से अन्य सर्वज्ञादि कोई पुरुष असम्भाव्य नहीं है]
अपौरुषेयवादी:-हम प्रथम पक्ष का स्वीकार करते हैं कि तथाभूत [अल्पप्रज्ञावाले] पुरुषों के अध्ययन में अध्ययनपूर्वकत्व की सिद्धि अभिप्रेत है। इसमें सिद्धसाधन की कोई बात नहीं है। कारण, तथाभूत पुरुष से अन्यथाभूत [सर्वज्ञादि] पुरुष सिद्ध नहीं है । हर मनुष्य अतीन्द्रियार्थदर्शनशक्ति से विकल ही होता है इसलिये वेदान्तर्गत अतीन्द्रियार्थप्रतिपादक प्रेरणावाक्यों के प्रणयन में असमर्थ ही होते हैं । तात्पर्य, सब तथाभूत हो हो गये, जब अन्यथाभूत कोई है ही नहीं तो सिद्धसाधन कैसे ?
उत्तरपक्षी:-आपका यह कथन ठीक तभी हो सकता यदि अतीन्द्रियार्थप्रतिपादक प्रेरणावाक्यों में अप्रामाण्याभाव स्वतः सिद्ध रहता। किंतु पहले ही हमने कह दिया है कि वेदवाक्य का प्रामाण्य भी सापवाद है । आशय यह है कि वेदवाक्य का यदि कोई गुणवान वक्ता नहीं मानेंगे तो वाक्यगत दोषों का निराकरण गुण से नहीं होगा, वे दोष रह जायेंगे और प्रामाण्य का अपवाद कर देंगे अर्थात् वेदवाक्य में अप्रामाण्य का निश्चय या संशय हो जायगा।
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