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प्रथमखण्ड-का० १- शब्दानित्यत्व०
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'वर्णानां निरवयवत्वाद् न भूयोऽवयवसामान्ययोगलक्षणस्य सादृश्यस्य सम्भवः'-तदत्यन्ताऽसंगतम् , वर्णानां भाषावर्गणारूपपरिणतपुद्गलपरिणामस्यैव सावयवत्वात् ।
अथ पौद्गलिकत्वे वर्णानां महती अष्टकल्पना प्रसज्यते । तथाहि-शब्दस्य श्रवणदेशाऽऽगमनम् , मूत्ति-स्पर्शादिमत्त्वं चानुपलभ्यमानं परिकल्पनीयम् । तेषां च मूत्ति-स्पर्शानां सतामप्यनुभूतता कल्पनीया, त्वगग्राह्यत्वं च परिकल्पनीयम्। ये चान्ये सूक्ष्मा भागास्तस्य कल्प्यन्ते तेषां च शब्दकरणवेलायां सर्वथानुपलभ्यमानानां कथं रचनाक्रमः क्रियताम् ? उपलभ्यमानत्वेऽपि कीदृशाद् रचनाभेदाद् गकारादिवर्णभेद: ? द्रवत्वेन च विना कथं वर्णावयवानां परस्परतः संश्लेषो वर्णनिष्पादकः ? यद्यपि च कथंचित कर्ता निष्पादिता वर्णास्तथापि आगच्छतां कथं न वायुना विश्लेष: ? लघूनां तदव. यवानामुदकादिनिबन्धनाभावाद निबद्धानामप्यागच्छतां वृक्षाद्यभिहितानां विश्लेषो लोष्टवत । न चैकशब्दस्यैकश्रोत्रप्रवेशे मूर्तत्वेन प्रतिबद्धत्वादन्येषां श्रोतणां तद्देशव्यवस्थितानामपि श्रवणमुपपद्यते, प्रयत्नान्तरस्यासत्त्वेन पुननिष्क्रमणाऽसंभवात् । न चैकगोशब्दापेक्षयाऽवान्तरवर्णनानात्वकल्पनायामस्ति प्रयोजनम् , एकस्मादेव गोशब्दादर्थप्रतीतेः, अतो गकारादिवर्णनानात्वमदृष्टं परिकल्पनीयम् । न चैकस्यैव गोशब्दावयविनः सर्वासु दिक्षु गमनं युज्यत इत्यनेकादृष्टपरिकल्पना स्यात् । तदुक्तम्
[ सदृशत्वेन गादि का ग्रहण असंगत नहीं है ] यह जो कहा था कि-'वर्णों से परस्पर सादृश्य का ग्रहण न होने से सादृश्य से अर्थबोध नहीं हो सकता' इसमें दो बात है (१) यदि आप व्यक्ति के सादृश्य को समानपरिणामरूप सामान्यात्मक मान कर यह बात करते हो तो ऐसा गत्वादिसामान्य गकारादि शब्द व्यक्ति का विशेषण होकर जिस प्रकार वाचक बन सकता है उसका प्रतिपादन अभी ही हो चुका है। (२) यदि उक्त प्रकार से अन्यथा
सादृश्य के ग्रहण न होने का कहते हैं तो हम उस प्रकार के सादृश्य का स्वीकार ही नहीं करते हैं इसलिये वह अस्वीकार ही आपकी बात का परिहार कर देता है । यह भी जो आपने कहा था-'वर्ण निरंश पदार्थ होने से अनेक अवयवों के साम्यरूप सादृश्य का वर्ण में होना संभव नहीं है'-वह भी अत्यन्त असंगत है क्योंकि औदारिकादि आठ पुद्गल वर्गणा में से एक भाषावर्गणा के रूप में परिणत पुद्गलों का स्कन्धादि परिणाम ही वर्ण है और स्कन्ध परिणाम अनेक पुद्गलनिर्मित होने से सावयव ही होता है।
[शब्द पौद्गलिकत्व के विरुद्ध अनेक आपत्तियाँ-मीमांसक ] मीमांसक:- शब्द को यदि पौद्गलिक माना जाय तो बडी वडी अदृष्ट कल्पनाओं का कष्ट होगा। जैसे-अन्यत्र उत्पन्न शब्द का श्रोत्रदेशपर्यन्त आगमन तथा मूर्त्तत्व यानी सक्रियता एवं स्पर्श-रूपादि ये सब उपलब्ध न होने पर भी उनकी कल्पना करनी पड़ेगी। मूर्तत्व और स्पर्शादि मान लेंगे तो विद्यमान होने पर भी उन को अदृश्य यानी अनुभूत भी मानना होगा। तथा स्पर्श को त्वगिद्रिय से अग्राह्य कहना होगा । शब्द के सूक्ष्मावयवों की कल्पना करनी होगी। सूक्ष्मावयवों को मानने पर भी जब शब्दरचना की इच्छा होगी उस वक्त उनकी उपलब्धि सर्वथा न होने से उसकी रचना कैसे की जायेगी ? कदाचिद् उनकी उपलब्धि मान ले तो किस प्रकार के रचनाभेद से गकारादिवर्णभेद निष्पन्न होगा यह दिखाना होगा। तथा उन अवयवों में द्रवत्व न होने से वर्णनि
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