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________________ १४८ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ न च प्रत्यभिज्ञया गादीनामेकत्व सिद्धर्भेदनिबन्धनस्य तेषु गत्वादिसामान्यस्याभाव इति युक्तमभिधानम् , गायेकत्वग्राहिकाया लूनपुनर्जातकेशनखादिष्विव तस्या भ्रान्तत्वात् । अथ दलितपुनरुक्तेि नखशिखरादौ प्रत्यभिज्ञायाः बाधितत्वेन भ्रान्तत्वं न पुनर्गादौ । ननु तत्र प्रत्यभिज्ञायाः किं बाधकम् ? 'अन्तरालेऽदर्शनं' इति चेव ? ननु गादावप्यन्तरालेऽदर्शनं समानम् । अथ दलितपुनरुदिते नखशिखरादावभावनिमित्तमन्तरालेऽदर्शनम् , न गासवभावनिमित्तम्, कि पुनरत्राऽदर्शननिमित्तमिति वक्तव्यम् । किमत्र वक्तव्यम् ? अभिव्यक्तेरभावः । अथ केयमभिव्यक्तिर्यदभावादन्तराले गाद्यप्रतिपत्तिः ? वर्णादिसंस्कारः । अथ कोऽयं वर्णादिसंस्कारः ? 'प्रात्म-मनःसंयोगपूर्वकप्रयत्नप्रेरितेन कोष्ठ्येन वायुना ताल्वादिसंयोग-विभागवशात प्रतिनियतवर्णा [गकारादिशब्द में सामान्य का समर्थन ] नित्यवादी:-गकारादिवर्ण में जो समानाकार प्रतीति होती है उसका निमित्त सामान्य नहीं है किन्तु श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यत्व है। उत्तरपक्षी:-यह गलत है। कारण, शब्द की श्रोत्रग्राह्यता तो अतीन्द्रिय है इसलिये प्रत्यक्ष से उसका ग्रहण ही नहीं होगा और उस निमित के अगृहीत रहने पर श्रोत्रग्राह्यतारूपनिमित्तग्रहमूलक यानी उसके निमित्त से होने वाली समानाकार प्रतीति भी गकारादि में नहीं होने की आपत्ति होगी। नित्यवादी:-गत्वादि सामान्य का स्वीकार व्यक्तिभेद मूलक ही है-अर्थात् व्यक्तिओं को अनेक मानने पर ही अनेक में एकाकार प्रतीति का निमित्त सामान्य को माना जा सकता है । किन्तु यहाँ गकारादि की अनेकता यानी भेद सिद्ध नहीं है अपितु 'यह वही गकार है' इस प्रत्यभिज्ञा से उनका एकत्व ही सिद्ध होता है । जब व्यक्तिभेद ही नहीं है तो तन्मूलक गत्वादि का भी अभाव सिद्ध हुआ । उत्तरपक्षी - ऐसा मत कहो, क्योंकि एकत्व साधक वह प्रत्यभिज्ञा तो भ्रम है उससे एकत्व सिद्ध नहीं हो सकता। जैसे बार बार काटने पर पुन: पून: उत्पन्न होने वाले केश और नख आदि में 'यह वही नख है' इस प्रकार प्रत्यभिज्ञा हो जाती है किन्त उसका विषय तो समानाकार अन्य नखादि होने से वह भ्रान्त मानी जाती है, ऐसा ही प्रस्तुत में है। नित्यवादी:-काट देने पर भी फिर से उत्पन्न होने वाले नख और वृक्षादि के शिखर में जो एकत्व प्रत्यभिज्ञा होती है, उत्तर काल में उसका बाध होने से उस प्रत्यभिज्ञा को भ्रान्त मानना ठीक है किन्तु गकारादि में उत्तरकालीन बाध होने से उसके एकत्व की प्रत्यभिज्ञा भ्रम नहीं है । उत्तरपी:-नखादि प्रत्यभिज्ञा में किस बाध का आपको दर्शन हुआ? नित्यवादी:-प्रथम नख का छेद और नये नख की उत्पत्ति- दोनों के मध्य काल में नख का दर्शन नहीं होता। उत्तरपक्षी:-एक गकार के श्रवण के बाद दूसरे गकार का जब तक श्रवण नहीं होता उस मध्य काल में गकार का भी दर्शन नहीं होता यह बात दोनों पक्ष में समान है। नित्यवादी:-नख-शिखरादि का छेद होने पर जो मध्य में उसका अदर्शन होता है वहाँ तो उसका अभाव ही निमित्त होता है, गकारादि का मध्य में अदर्शन उसके अभाव के कारण नहीं है । उत्तरपक्षी:- तो फिर उसके अदर्शन का निमित्त क्या है ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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