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________________ १४२ सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड- १ किच, साहश्यादर्थप्रतिपत्तौ भ्रान्तः शब्दादर्थप्रत्ययः स्यात् । नह्यन्यस्मिन् गृहीत संकेतेऽन्यस्मादर्थप्रत्ययो भ्रान्तः, यथा गोशब्दे गृहीतसम्बन्धेऽश्वशब्दाद् गवार्थप्रत्ययः । न च भूयोऽवयवसामान्ययोगस्वरूपं सादृश्यं शब्दे संभवति, विशिष्टवर्णात्मकत्वाच्छब्दस्य, वर्णानां च निरवयवत्वात् । न च समानस्थानक रणजन्यत्वलक्षणं सादृश्यं प्रतिपत्तुं शक्यम्, परकीयस्थान करणादेरतीन्द्रियत्वेन तज्जन्य (न्यत्व) स्याप्यप्रतिपत्तेः । न च गत्वादिविशिष्टानां गादीनां वाचकत्वमभ्युपगन्तु युक्तम्, गत्वादिसामान्यस्याभावात् । तदभावश्च गादीनां नानात्वाऽयोगात्, तदयोगश्च प्रत्यभिज्ञया गादीनानिश्चयत् । अत एव न सामान्यनिबन्धना गादिषु प्रत्यभिज्ञा, भेदनिबन्धनस्य सामान्यस्यैव गादिव्वभावात् कुतस्तन्निबन्धना गादिषु प्रत्यभिज्ञा ? का बोध नहीं करवाता किन्तु साम्य के कारण एकत्वाध्यवसाय से अर्थ बोध होता है । इसलिये प्रमाण बाधित नित्यत्व की कल्पना से क्या लाभ ? ! ' यह बात अयुक्त है - कारण, सादृश्य शब्दहेतुक अर्थबोध का हेतु न होने से उससे अर्थबोध नहीं माना जा सकता । जिस शब्द की साम्यरूप से प्रतीति होती है उसका ऐक्यरूप से अध्यवसाय हो सकता है, किंतु वाचक रूप से उसका अध्यवसाय होने का अनुभव नहीं है । साम्य के कारण जो बोध होगा वह इस प्रकार होगा कि - 'संकेत ज्ञान के काल में जिस शब्द का बोध किया था, यह वही शब्द है । इसमें तो एकत्व का अनुभव है - वाचकत्व का नहीं । वाचकरूप से शब्द का अनुभव न होने पर उससे अर्थबोध कैसे माना जाय ? [ सादृश्य से होने वाले शब्दबोध में भ्रान्तता आपत्ति ] यह भी सोचना चाहिये कि यदि अर्थबोध शब्द से न होकर सादृश्य से मानेंगे तो शब्द से अर्थबोध होता है वह भ्रमात्मक हो जायेगा चूँकि जिसमें वाचकरूप संकेतज्ञान किया है उससे अर्थबोध न होकर अन्य से होने वाला अर्थज्ञान भ्रमभिन्न नहीं हो सकता है जैसे कि 'गो' शब्द में संकेत ज्ञान होने के बाद अश्वशब्द से धेनुरूप अर्थ का ज्ञान भ्रमभिन्न नहीं होता । दूसरी बात यह है कि सादृश्य का अर्थ है दो पदार्थ में अनेक समान अंशों का योग । ऐसे सादृश्य का शब्द में संभव ही नहीं है । कारण, शब्द विशिष्ट प्रकार के वर्ण रूप हैं और वर्ण स्वयं निरवयव होता है । निरवयव होने के कारण शब्द में अनेक समान अंशों का योग यानी सादृश्य का संभव नहीं हो सकता । यदि कहें कि यहां 'समान तालु आदि स्थान और समान कारण से उत्पत्ति' रूप सादृश्य विवक्षित है तो इसका शब्द में ग्रहण भी संभव नहीं है क्योंकि प्रयोग करने वाले पुरुष का स्थान-करणादि सब अतीन्द्रिय है, इसलिये तज्जन्यत्व का ग्रहण असंभव है। यदि कहें कि 'संकेत ज्ञानकाल में जो गकारादि व्यक्ति का श्रवण किया था उस वक्त उस गकारादिगत गत्वादि जाति से विशिष्ट गकारादि में ही संकेत ज्ञान किया था इसलिये व्यवहार काल में भी गत्वादि जाति विशिष्ट ही कारादि के श्रवण से अर्थबोध होने में कोई आपत्ति नहीं है' तो यह मानना ठीक नहीं है, क्योंकि गत्वादि कोई जाति ही नहीं है । जाति तो अनेक व्यक्ति समवेत होती है जब कि गकारादि व्यक्तिओं की विभिन्नता असिद्ध है । असिद्धि इसलिये कि - "यह वही गकार है" ऐसी प्रत्यभिज्ञा से गकारादि का एकत्व सुनिश्चित है । यही कारण है कि वह प्रत्यभिज्ञा एक गत्वादिअवलम्बिनी भी नहीं मानी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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