________________
१३६
सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
नाप्यनुमानात , तस्याभावात् । अथअतीतानागतौ कालौ वेदकार विजितौ । कालत्वात् , तद्यथा कालो वर्तमानः समीक्ष्यते। [ ] इत्यतोऽनुमानात् तत्सिद्धिः । न, अस्य हेतोरागमान्तरेऽपि समानत्वात् । किंच, यथाभूतो वेदकरणाsसमर्थपुरुषयुक्त इदानीं तत्कर्तृ पुरुषरहितः काल उपलब्धः, अतीतोऽनागतो वा तथाभूतः कालत्वात् साध्यते ? उत अन्यथाभूत: ? यति तथाभूतस्तदा सिद्धसाध्यता। अथान्यथाभूतस्तदा संनिवेशादिवदप्रयोजको हेतुः।
___तथाहि-यथाभूतानामभिनवकूपप्रासादादीनां सन्निवेशादि बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेन व्याप्तमुपलब्धं ताथाभूतानामेव जीर्णकप-प्रासादादीनां तद् बुद्धिमत्कारणत्वप्रयोजकत्वानन्यथाभूतानाम् [ ? प्रयोजकं नान्यथाभूतानाम्] यदि पुनरन्यथाभूतस्याप्यतीतस्यानागतस्य कालस्य तद्रहितत्वं साधयेत् कालत्वम् , तदाऽन्यथाभूतानामपि भूधरादीनां सन्निवेशादि बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वं साधयेत् , न तस्य [ ? ततश्च] सर्वजगज्जातुः कर्तुश्चेश्वरस्य सिद्धेश्चान्यथाभूतकालभावसिद्धिरतीवाऽ [ ? धे रतीवाs] पौरुषेयत्वसाधनं च वेदानामनवसरम्। इन्द्रिय से उपलम्भ होता है।" ऐसा अर्थवाला जैमिनी सूत्र [ १-१-४ ] तथा उस ग्रन्थ की टीका श्लोकवात्तिक में कहा है-[ भविष्यति न दृष्टं च....इत्यादि]-"भावि धर्मरूप अर्थ के ग्रहण में प्रत्यक्ष का लेश भी सामर्थ्य देखा नहीं गया।" अब अनादिसत्व के विषय में यदि प्रत्यक्ष प्रवृत्ति मानेंगे तो सूत्र और वृत्ति वचन का व्याघात होगा।
[वेद का अनादिसत्त्व अनुमान से सिद्ध नहीं ] अनुमान से भी वेद का अनादि सत्त्व सिद्ध नहीं है क्योंकि तत्साधक कोई अनुमान नहीं है।
अपौरुषेयवादी:-इस अनुमान से अपौरुषेयत्व की सिद्धि हो सकती है-"अतीत और अनागत काल वेदकर्ता से शून्य हैं, क्योंकि वे कालात्मक हैं-जैसा कि वर्तमान काल वेदकर्ता से शून्य देखा जाता है।"
उत्तरपक्षी:-इस अनुमान से अपौरुषेयत्व की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि वेद से इतर बौद्धादि आगम का भी वर्तमानकाल तो कर्तृ शून्य देखा जाता है इसलिये समान हेतु से अन्य आगम में भी अतीतानागतकालीन कर्तृ शून्यता सिद्ध होने की आपत्ति होगी।
दूसरी बात यह है कि-(१) वर्तमान में वेदरचना में असमर्थ पूरुषवाला जैसा काल वेदकर्ता रहित उपलब्ध होता है, क्या वैसा ही यानी वेदरचना में असमर्थपुरुषविशिष्ट ही अतीत-अनागत काल कर्तृशून्यतया सिद्ध करना है ? या (२) इससे विपरीत यानी वेदरचनासमर्थपुरुष सहित काल कर्तृशून्यतया सिद्ध करना चाहते हैं ? (१) यदि वेद रचना में असमर्थपुरुषविशिष्ट काल कर्तृशून्यतया सिद्ध करना है तो यहां जो हमारे मत से भी सिद्ध है उसी को आप साध्य बना रहे हो, अर्थात् आपका परिश्रम व्यर्थ है।
(२) यदि उससे विपरीत काल में कर्तृ विरह सिद्ध करना है तो कालत्व हेतु अप्रयोजक यानी असमर्थ हो जायगा जैसे कि संनिवेशादि हेतु न्यायमत में अप्रयोजक बन जाता है ।
[ कालत्व हेतु की अप्रयोजकता ] संनिवेश हेतु की अप्रयोजकता इस प्रकार है-संनिवेश यानी अवयवों की रचना विशेष को हेतु करके
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org