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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
अथान्याकारवेदित्वं तस्या असौ, तदा विपरीतख्यातिः स्यात् न स्मृतिप्रमोषः। कश्चासौ विपरीत आकारस्तस्याः ? यदि स्फुटार्थावभासिवम, तदसौ प्रत्यक्षस्याकारः कथं स्मृतिसम्बन्धी ? तत्सम्बन्धित्वे वा तस्याः प्रत्यक्षरूपतव स्यात न स्मतिरूपता । अत एव शुक्तिकायां रजतप्रतिभासस्य न स्मृतिरूपता तत्प्रतिभासेन व्यवस्थाप्यते, तस्य प्रत्यक्षरूपतया प्रतिभासनात् ।
नापि ब धकप्रत्ययेन तस्याः स्मतिरूपता व्यवस्थाप्यते, यतो बाधकप्रत्ययः तत्प्रतिभातस्यार्थस्याऽसदूपत्वमावेदयति, न पुनस्तज्ज्ञानस्य स्मतिरूपताम् । तथाहि-बाधकप्रत्यय एवं प्रवर्तते 'नेदंरतजम्' । न पुनः 'रजतप्रतिभासः प्रकृतः स्मतिः' इति । तन्न स्मृतिप्रमोषरूपता भ्रान्तदृशामभ्युपगंतु युक्ता । अतो नायमपि सत्पक्षः।
(१) स्मृति का अभाव यह तो स्मृति प्रमोष नहीं ही है क्योंकि तब प्रतिभास का ही अभाव आपन्न होगा। क्योंकि 'रजत' अंश में आप स्मृति के अलावा दूसरे ज्ञान को मानते नहीं।
(२) अब कहिये कि वह अन्य ज्ञानात्मक है-अर्थात् 'रजतं' यह ज्ञान होता है उस वक्त स्मृतिभिन्न किसी ज्ञान का होना यह स्मृतिप्रमोष है-तो यहाँ दो प्रश्न हैं [A] वह अन्यावभास 'रजतं' इस ज्ञान का समानकालीन है ? या [B] उत्तरकाल भावी है ? A, अगर समानकालभावि अन्यावभासी ज्ञान को स्मृति का प्रमोष कहा जाय तब तो 'रजतं' इस ज्ञान के काल में किसी को भी घटादिज्ञान होगा वह स्मृति का प्रमोष बन जायगा। B, उत्तरकालीन अन्यावभास स्मृति का प्रमोप है तो यह भी युक्त नहीं है क्योंकि इसमें अतिप्रसंग इस प्रकार होगा- यदि उत्तरकाल में कोई भी अन्यावभास उत्पन्न हुआ तो उससे वह पूर्वकालीन ज्ञान संबंध विना ही स्मृतिप्रमोष रूप मान लेने में क्या सिद्ध हुआ ? यदि विना संबंध ही पूर्वज्ञान को स्मृतिप्रमोप कह देना है तो जिस जिस ज्ञान के उत्तरकाल में कोई अन्य ज्ञान उत्पन्न होगा वे सभी ज्ञान पूर्वकालीन ज्ञान हो जाने से स्मृति प्रमोषरूप कहना होगा-यही अतिप्रसङ्ग है ।
(३) तृतीय विकल्प में स्मृतिप्रमोष को अन्याकारवेदनरूप माना जाय तब तो वह स्मृति प्रमोप नहीं हुआ किन्तु स्पष्ट रूप से विपरीत ख्याति ही हुई । वहां यह भी प्रश्न होगा कि वह अन्याकार यानी विपरीत आकार कैसा है ? यदि स्फुट अर्थावभास को ही विपरीत आकार कहेंगे तो वह प्रत्यक्ष का ही आकार हआ क्योंकि प्रत्यक्ष के अलावा किसी भी ज्ञान में स्फुटार्थावभास नहीं हाता । फिर उसे स्मतिसंवंधी क्यों मानते हो? अथवा वह अन्याकार स्फूटावभास रूप होकर यदि स्मृति सम्बन्धी होगा तो स्फुटावभासवाली होने से स्मति भी प्रत्यक्षरूप ही हो जायगी, स्मृतिरूप नहीं रह सकेगी। यही कारण है कि सीप में होने वाले रजतावभास में स्मृतिरूपता रजत प्रतिभास से ही सिद्ध नहीं की जा सकती क्योंकि रजतावभास वहाँ प्रत्यक्ष रूप ही प्रतीत होता है, वह स्मृतिरूपता में कैसे साक्षि होगा।
__ भ्रमज्ञानोत्तरभावी बाधकज्ञान से भी 'रजतं' इस ज्ञान की स्मतिरूपता सिद्ध नहीं होती क्योंकि बाधक प्रतीति से तो भ्रमज्ञान में भासित रजत की असद्रूपता ही आवेदित होती है किन्तु भ्रमज्ञान की स्मृतिरूपता का उससे आवेदन नहीं होता। वह इस प्रकार-बाधक प्रतीति 'यह रजत नहीं है' इस प्रकार ही उत्पन्न होती है, 'प्रस्तुत रजतप्रतिभास स्मति है' इस रूप में उत्पन्न नहीं होती।
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