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________________ ११० सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ यदि कालान्तरस्थायी तदा "क्षणिका हि सा न कालान्तरमवतिष्ठते"[ ] इति वचः परिप्लवेत कारकान्वेषणं चात्रापि पक्षे फलाथिनामसंगतम्, कियत्कालस्थाय्यजन्यभावरूपव्यापाराभ्युपगमे तत्कालं यावत तत्फलस्यापि निष्पत्तेः आव्यापारविनाशमर्थप्रकाशलक्षणकार्यसद्धावादन्धत्वमूर्खादीनामभावः स्यात् । ___ अथ क्षणिक इति पक्षः, सोपि न युक्तः, क्षणानन्तरं व्यापाराऽसत्त्वेनार्थप्रतिभासाभावाद् अपगतार्थप्रतिभासं सर्वं जगत् स्यात् । अथ स्वत एव द्वितीयादिक्षणेषु व्यापारोत्पत्ते यं दोषः, अजन्यत्वं तु तस्यापरकारकजन्यत्वाभावेन । नैतदस्ति, कारकानायत्तस्य देश-कालस्वरूपप्रतिनियमाभावस्वभाव. तायाः प्रतिपादनात् । किंच, अनवरतक्षणिकाऽजन्यव्यापाराभ्युपगमे तज्जयार्थप्रतिभासस्यापि तथैव भावात् सुप्ताद्यभावदोषस्तदवस्थः। तन्नाजन्यव्यापाराभ्युपगम: श्रेयान् । दशा का अभाव हो जायगा, तथा सभी लोग सर्वज्ञ बन जाने की आपत्ति होगी । कारकों की खोज की निरर्थकता तो स्पष्ट है क्योंकि भावरूप व्यापार से प्रमाणफलधारा सतत बहती रहेगी तो सुषुप्ति में ज्ञानाभाव कैसे होगा? अगर कहें कि अजन्य भावात्मक व्यापार अनित्य है यह हम मानते हैं-तो वह भी लोकबाह्य है, क्योंकि अजन्य भाव को कोई भी बुद्धिमान लोक अनित्य नहीं मानते । अब आप कहेंगे कि-हम अजन्यभाव को अनित्य मानते हैं तो उस पर भी दो प्रश्न हैं-C क्या वह अन्यकाल में [ कुछ क्षणों तक] रहने वाला अनित्य है ? या D सर्वथा क्षणिक है ? [ व्यापार कालान्तरस्थायी नहीं हो सकता ] C यदि अजन्य भावात्मक अनित्य व्यापार को कालान्तर स्थायी माना जाय तो आपका यह वचन निरर्थक होगा कि 'वह (क्रिया) क्षणिक होने के नाते अन्य काल में अवस्थित नहीं रहती" । तथा इस पक्ष में भी फलार्थिओं द्वारा कारकों की खोज व्यर्थ हो जाने की आपत्ति दुनिवार है, क्योंकि व्यापार कारकजन्य नहीं है । तथा, कुछ समय तक जीने वाले अजन्य भावात्मक व्यापार को मानने में अन्धापन और बेहोशी का भी अभाव हो जाने की आपत्ति होगी क्योंकि जितने काल वह जीने वाला है उतने काल में तो उसके फल की निष्पत्ति निर्बाधरूप से हो जायेगी, अर्थात् व्यापार नष्ट हो जाय तब तक तो (नाश के पहले) अर्थप्रकाश स्वरूप कार्य हो ही जायगा फिर अन्धा किसको कहना, बेहोश किसको बताना ? । [क्षणिक अजन्य व्यापार पक्ष भी अयुक्त है ] (B) यदि अजन्य भावात्मक अनित्य व्यापार क्षणिक होने का पक्ष किया जाय तो वह भी अयुक्त है, क्योंकि एक ही क्षण के बाद त्वरित व्यापारध्वंस हो जाने से अर्थ का किसी को भी प्रतिभास ही नहीं होगा तो सारे जगत में अर्थ प्रतिभास का दुष्काल पड जायेगा । यदि यह कहें कि-दूसरे क्षण में नये नये व्यापार की उत्पत्ति हो जाने से कोई दुप्काल आदि दोष नहीं होगा एवं इस उत्पत्ति के साथ पूर्वकथित अजन्यत्व को कोई विरोध होने की भी संभावना नहीं है क्योंकि नया नया व्यापार अपने आप ही उत्पन्न हो जाता है, अन्य कारकों को पराधीन जन्यता उसमें नहीं है ।'तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि पहले यह कह आये हैं कि जो कारकाधीन नहीं होता उसका स्वभाव किसी देश-काल या स्वरूप के बन्धन में नहीं होता । दूसरा एक दोष यह है-नित्य नये नये व्यापार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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