________________
८८
सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
निश्चितत्वात् तद्विरुद्धत्व-अनेकान्तिकत्वयोरप्यभाव इति भवत्यतो हेतोः प्रेरणाप्रभवे ज्ञाने प्रामाण्याभावसिद्धिः।
ज्ञातृव्यापारः न प्रमाणसिद्धः ] किंच, प्रमाणे सिद्ध सति कि तत्प्रामाण्यं स्वतः परतो वा' ? इति चिन्ता युक्तिमती, भवदभ्युपगमेन तु तदेव न सम्भवति । तथाहि-ज्ञातृव्यापारः प्रमाणं भवताऽभ्युपगम्यते, न चासौ युक्तः, तद्ग्राहकप्रमाणाभावात् । तथाहि-प्रत्यक्ष वा तद्ग्राहक, अनुमानं, अन्यद्वा प्रमाणान्तरम् ? तत्र यदि प्रत्यक्षं तद्ग्राहकमभ्युपगम्येत तदाऽत्रापि वक्तव्यम् स्वसंवेदनम् , बाह्ये न्द्रियजं, मनःप्रभवं वा? न तावत् स्वसंवेदनं तद्ग्राहकम्, भवता तद्ग्राह्यत्वानभ्युपगमात् तस्य । नापि बाह्य न्द्रियज, इन्द्रियाणां स्वसम्बद्धेऽथ ज्ञानजनकत्वाभ्युपगमात् । न च ज्ञातृव्यापारेण सह तेषां सम्बन्धः, प्रतिनियतरूपादिविषय'वात् । नापि मनोजन्यं प्रत्यक्ष ज्ञातृव्यापारलक्षणप्रमाणग्राहकम्, तथा प्रतीत्यभावात् अनभ्युपगमाच्च।
ऽजन्यत्व किसी प्रमाण से सिद्ध रहता, किन्तु वही असिद्ध है क्योंकि वेद में अपौरुषेत्व के साधक-प्रमाण का आगे निराकरण किया जाने वाला है । इसलिये यह भी उद्घोष करने योग्य नहीं है कि
'वेदवाक्य का कोई वक्ता न होने से वहाँ अपवाद से मुक्ति सुलभ है, अत: वेद में अप्रामाण्य शंका को प्राप्त नहीं होता' ।-क्योंकि अपौरुषेयत्व का खण्डन आगे किया जायेगा।
निष्कर्ष यह आया कि वेद का अपौरुषेयत्व सम्भव नहीं है और उसका कोई गुणवान् वक्ता भी नहीं है इसलिये प्रेरणावाक्यजन्य ज्ञान में अनिराकृत दोपों से जन्यमानत्व रूप हेतु वेद के अप्रामाण्य की सिद्धि के लिये कहा गया है वह सिद्ध होता है। जहाँ दोषजन्यत्व होता है वहाँ अप्रामाण्य होता है यह अविनाभावरूप नियम शुक्ति में रजत अवभासक ज्ञान में सिद्ध है-निश्चित है। इसलिये दोषजन्यत्व हेतु में न तो विरोध का उद्भावन हो सकता है, न तो व्यभिचार दोष का उद्भावन हो सकता है । इसलिये इस दोषजन्यत्व रूप हेतु से प्रेरणावाक्यजन्य ज्ञान में प्रामाण्य के अभाव की सिद्धि निष्कंटक है।
[ज्ञातव्यापार प्रमाणसिद्ध नहीं है ] 'प्रामाण्य स्वतः है या परतः' इस सम्बन्ध में स्वत:प्रामाण्य वादी के साथ जो कुछ विचार किया जाता है वह भी प्रमाण के सिद्ध होने पर ही करना युक्तियुक्त यानी सार्थक है। किन्तु महत्त्व की बात यह है कि स्वत: प्रामाण्यवादी के मतानुसार प्रमाण की सिद्धि ही सम्भव नहीं है। वह इस रीति से-पूर्वपक्षी ज्ञाता के व्यापार को प्रमाण कहते हैं किन्तु वह घटता नहीं, क्योंकि 'ज्ञातृव्यापार यह प्रमाण है' इसका ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है । प्रमाणाभाव इस प्रकार-वह कौनसा प्रमाण है जो 'ज्ञातृव्यापार यह प्रमाण है-इसका ग्राहक हो? A प्रत्यक्ष उसका ग्राहक है या B अनुमान अथवा C अन्य कोई प्रमाण?
A यदि प्रत्यक्ष को उसका ग्राहक मानते हो तो यहाँ भी आपको कहना होगा कि वह A1 स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है या A2 बहिरिन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष है अथवा A3 मनोजन्य है ? A1 स्वसंवेदनप्रत्यक्ष तो ज्ञातृव्यापार का ग्राहक नहीं है क्योंकि ज्ञातृव्यापार को आप स्वसंवेदनप्रत्यक्षग्राह्य मानते ही नहीं। क्योंकि स्वसंवेदनप्रत्यक्ष का ग्राह्य स्वमात्र है, ज्ञातृव्यापार नहीं। A2 बाह्य न्द्रियजन्य प्रत्यक्ष मे भी वह अगादा है क्योंकि आप भी यह मानते हैं कि इन्दियों से सम्बन्धित अर्थ का ही ज्ञान
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org