SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ तथाहि-अनेन सर्वेणाऽपि ग्रन्थेन स्वत. प्रामाण्यव्याहतिः परिहता परीक्षकज्ञानत्रितयाधिकज्ञानानपेक्षयाऽनवस्था च, एतद्वितयमपि परपक्षे प्रदशितं प्राक न्यायेन। यच्चान्यत् पूर्वपक्षे परत:प्रामाण्ये दूषणमभिहितं तच्चानभ्युपगमेन निरस्तमिति न प्रतिपदमुच्चार्य दूष्यते। [प्रेरणाबुद्धिर्न प्रमाणम् ] प्रेरणाबुद्धस्तु प्रामाण्यं न साधननिर्भा सिप्रत्यक्षस्येव संवादात् , तस्य तस्यामभवात् । नाप्यव्यभिचारिलिंगनिश्चयबलात् स्वसाध्यादुपजायमानत्वादनुमानस्येव । कि च प्रेरणाप्रभवस्य चेतसः प्रामाण्यसिद्धयर्थं स्वतःप्रामाण्यप्रसाधनप्रयासोऽयं भवताम्, चोदनाप्रभवस्य च ज्ञानस्य न केवलं प्रामाण्यं न सिध्यति, कित्वप्रामाण्यनिश्चयोऽपि तव न्यायेन सम्पद्यते । तथाहि यद् दुष्टकारणजनितं ज्ञानं न तत् प्रमाणं, यथा तिमिराशुपद्रवोपहतचक्षुरादिप्रभवं ज्ञानम् , दोषवत्प्रेरणावाक्यजनितं च 'अग्निहोत्रं जहयात' इत्यादिवाक्यप्रभवं ज्ञानम्, इति कारणविरुद्धो हमारे पूर्वोक्त युक्तिसंदर्भ से भट्ट के पक्ष में स्वत: प्रामाण्य का व्याघात कैसे है और अनवस्था दूर करने पर भी पुनः पुन: कैसे लगी रहती है यह बता दिया है । पूर्वपक्षी ने अपने पूर्वपक्ष के प्रतिपादन में हमारे परतः प्रामाण्य पक्ष में और भी जो जो दूषण अन्य अन्य विकल्प जाल रच कर उद्भावित किया है, उन विकल्पों का अभ्युपगम न करने से ही वे दूषण टल जाते हैं इस लिये पूर्वपक्ष की पंक्ति पंक्ति का अनुवाद कर उसमें दोषोद्भावन को यहां हम छोड देते हैं। [प्रेरणावुद्धि प्रमाण ही नहीं है ] पूर्वपक्षी ने जोयह कहा था कि 'प्रेरणाजनिता तु बुद्धि' [पृ. ३५] इत्यादि अर्थात् प्रत्यक्ष, अनुमान और आप्तोक्ति की भाँति प्रेरणावाक्य अर्थात् वेदवाक्य जनित बुद्धि भी स्वतः प्रमाणभूत है'-यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि साधन निर्भासी प्रत्यक्ष का प्रामाण्य संवाद पर अवलम्बित है जैसे तृप्ति आदि अर्थक्रिया के साधनरूप जल का प्रत्यक्ष होने पर जब समीप में जाते हैं तो जलउपलब्धि होती है और उससे तरस भी मिट जाती है तो इस संवाद से उस प्रत्यक्ष का प्रामाण्य सिद्ध होता है। प्रेरणाबुद्धि के प्रामाण्य को सिद्ध करने के लिये कोई भी संवाद नहीं है, 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' इस प्रेरणावाक्यजनित अग्निहोत्र में स्वर्गहेतुता की बुद्धि का संवादी अन्य कोई ज्ञान नहीं होता इसलिये प्रत्यक्ष की तरह उसका प्रामाण्य कैसे माना जाय ? अनुमान की भाँति भी उसका प्रामाण्य नहीं मान सकते क्योंकि अनुमान अपने साध्य से अव्यभिचारी लिंगनिर्णय के बल पर खड़ा होता है । प्रस्तुत में अग्निहोत्र होम में स्वर्गहेतुता का अनुमान कराने वाला कोई अव्यभिचारी लिंग ही नहीं है। दूसरी बात यह है कि भट्टादि मीमांसकों का स्वत: प्रामाण्य प्रसिद्ध करने का समूचा प्रयास अन्त में तो प्रेरणावाक्यजनित चेतस् यानी बुद्धि के प्रामाप्य को निर्बाध सिद्ध करने के लिये ही है, किन्तु परिणाम ऐसा विपरीत है कि प्रेरणाजनित बुद्धि का प्रामाण्य सिद्ध होना तो दूर रहा, उसका अप्रामाण्य ही युक्तिसमूह से आप को प्राप्त होता है । वह युक्तिसमूह इस प्रकार है [प्रेरणाजनित ज्ञान दोषप्रयुक्त होने से अप्रमाण ] जो ज्ञान दुष्ट कारणों से उत्पन्न होता है वह प्रमाण नहीं होता, जैसे तिमिरादि दोष के उपद्रव से ग्रस्त नेत्रादिजन्य ज्ञान । 'अग्निहोत्र का होम करें' इत्यादिवाक्यजन्य ज्ञान यह दोषयुक्त प्रेरणा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy