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________________ प्रथम खण्ड-का०१-प्रामाण्यवाद अत उत्पत्ती, स्वकार्ये, जप्तौ च सापेक्षत्वस्य प्रतिपादितत्वाद् 'ये यद्भावं प्रत्यनपेक्षाः' इति प्रयोगे हेतोरसिद्धिः। यतश्च संदेहविपर्ययविषयप्रत्ययप्रामाण्यस्य परतो निश्चयो व्यवस्थितोऽतः 'ये संदेह-विपर्ययाध्यासिततनवः' इति प्रयोगे न व्याप्त्यसिद्धिः। यदप्युक्तम्-'सर्वप्राणभृतां प्रामाण्यं प्रति संदेहविपर्ययाभावादसिद्धो हेतुः' [पृ. ३२-२ ] इत्यादि-तदप्यसत, यतः प्रेक्षापूर्वकारिणः प्रमाणाऽप्रमाणचिन्तायामधिक्रियन्ते नेतरे। ते च कासांचिद् ज्ञानव्यक्तिनां विसंवाददर्शनाज्जाताशंका न ज्ञानमात्रात 'एवमेवायमर्थः' इति निश्चिन्वन्ति, नापि तज्ज्ञानस्य प्रामाण्यमध्यवस्यन्ति, अन्यथेषां प्रेक्षावत्तव हीयत इति संदेहविषये कथ न संदेहः ? तथा कामलादिदोषप्रभवे ज्ञाने विपर्ययरूपताऽप्यस्तीति तदबलाद् विपर्ययकल्पनाऽन्यज्ञानेऽपि संगतैवेति प्रकृते प्रयोगे नासिद्धो हेतुरिति भवत्यतो हेतोः परतःप्रामाण्यसिद्धिः । के निश्चय में कहीं भी चक्रकदूषण का अवतार नहीं है। किन्तु प्रत्यक्ष में विलक्षणता यह है कि'वह अर्थ से उत्पन्न हुआ है' यह निश्चय संवाद के पूर्व करना शक्य ही नहीं है इस लिये अनभ्यास दशा में प्रामाण्य का अधिगम संवाद सापेक्ष ही मानना युक्तिसंगत है। [ पूर्वपक्षव्याप्ति में हेतु की असिद्धि ] ___ उपरोक्त प्रतिपादन का अब यह निष्कर्ष फलित होता है कि प्रामाण्य अपनी उत्पत्ति, अपन। कार्य और अपना निश्चय, तीनों में परसापेक्ष है, अतः स्वतः प्रामाण्यवादी ने यह जो अनुमान प्रयोग किया था कि 'ये यद्भावं प्रत्यनपेक्षाः ते तत्स्वरूपनियता:'....इत्यादि, उसमें अनपेक्षत्व हेतु असिद्ध है । और हमने यह भी सिद्ध किया कि-संदेह और विपर्यय से ग्रस्त जो ज्ञान होता है उसके प्रामाण्य का निश्चय स्वतः नहीं किन्तु परत:=पर सापेक्ष होता है. इसलिये परतःप्रामाण्य पक्ष की सिद्धि में जो अनुमान प्रयोग हमने किया था कि-'ये संदेहविपर्ययाध्यासिततनवः ते परतो निश्चितयथावस्थितस्वरूपाः'-इसमें व्याप्ति असिद्ध नहीं है । ( यदप्यूक्तम्,-सर्वप्राणभृतां.... ) यह जो कहा गया कि-'सर्व जीवों को प्रामाण्य निश्चित करने में संदेह-विपर्यास नहीं होता है अतः हेतु असिद्ध है'....इत्यादि,- यह भी कहना मिथ्या है, क्योंकि जो प्रेक्षापूर्वकारी अर्थात सोच-समझकर कार्य करने वाले होते हैं वे ही 'अपना ज्ञान प्रमाणभूत है या अप्रमाण' उसकी चिन्ता करने के अधिकारी हैं, और उनको यह चिन्ता सहज होती ही है, दूसरे अप्रेक्षापूर्वकारी जीवों को ऐसी चिन्ता करने का अधिकार ही नहीं। तो सब जीवों के लिए ऐसा नियम कैसे बनाया जाय कि उनको अपने ज्ञान को प्रामाण्य के विषय में चिन्ता ही नहीं होती है कि यह ज्ञान प्रमाण है या संदेह या विपर्यास यानी भ्रमरूप है ? [ परतः प्रामाण्यसाधक अनुमान में हेतु असिद्ध नहीं है ] वे प्रेक्षापूर्वकारी पुरुष कुछ कुछ ज्ञान व्यक्तिओं का बाद में विसंवाद देखकर, नया कोई ज्ञान हने पर संकाशील हो जाते हैं कि 'यह ज्ञान संवादी होगा या विसंवादी' अथवा 'प्रमाण होगा या अप्रमाण ?' इसलिये विचारक लोक प्रत्यक्षादिज्ञान होते ही 'यह पदार्थ जैसा दीखता है वैसा ही है ऐसा निर्णय नहीं बाँध लेते हैं, एवं उस ज्ञान को निश्चित रूप से प्रमाण भी नहीं शन लेते हैं। अन्यथा 'यह ज्ञान भ्रान्त है या अभ्रान्त ?' ऐसी जांच किये बिना ही उसको प्रमाण मान लिया जायगा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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