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________________ सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १ 'अभ्यास दशायामपि साधनज्ञानस्यानुमानात् प्रामाण्यं निश्चित्य प्रवर्त्तते इत्येके । न च तदृशायामन्वयव्यतिरेकव्यापारस्याऽसंवेदनान्नानुमानव्यापार इत्यभिधातुं शक्यम्, अनुपलक्ष्यमाणस्यापि तद्वचापारस्याभ्युपगमनीयत्वात् श्रकस्माद् धूमदर्शनात् परोक्षाग्निप्रतिपत्ताविव, अन्यथा गृहीतविस्मृतप्रतिबन्धस्यापि तद्दशनादकस्मात् तत्प्रतिपत्तिः स्यात् । न चाध्यक्षैव साधनज्ञानस्य फलसाधनशक्तिरिति कथमध्यक्षेऽनुमानप्रवृत्तिः ? इति चोद्यम्, दृश्यमानप्रदेशपरोक्षाग्निसंगतेरिव तज्जननशक्तेर प्रत्यक्षत्वेन प्रनुमानप्रवृत्तिमन्तरेण निश्चेतुमशक्यत्वात् । तदुक्तम् तद्द्दृष्टावेव दृष्टेषु संवित्सामर्थ्य भाविनः । स्मरणादभिलाषेण व्यवहारः प्रवर्तते ॥ [ ७६ 1 ] इति । ( सोऽवगत सम्बन्धोऽन्यदा .... ) अब ऐसा सम्बन्ध जानने वाला पुरुष जहां तक अभ्यास नही हुआ वहां तक कहीं गया व ऐसे रूपवाला पदार्थ देखा तो उसको अनुमान होता है कि 'यह दिखाई देता पदार्थ मेरी इष्ट अर्थक्रिया का साधन है, क्योंकि यह उसी प्रकार दृश्यमान रूप वाला पदार्थ है जैसे पूर्वोत्पन्न इस प्रकार रूपवाला पदार्थ इष्ट अर्थक्रिया का साधन था, वैसा यह भी साधन होगा ।'इस प्रकार के अनुमान से प्रथम जो साधननिर्भासी प्रवर्तक ज्ञान हुआ था उसके अर्थक्रिया कारित्व का निर्णय होने से उसके प्रामाण्य का निर्णय होता है व निर्णय कर प्रवृत्ति करता है, तब बताईये यहां चत्रक दोष को कहाँ अवकाश है ? [ अभ्यास दशा में प्रामाण्यानुमान के बाद प्रवृत्ति - एक मत ] जैसे अनभ्यासदशा में चत्रक का अवतार नहीं है, उसी प्रकार अभ्यासदशा में भी वह नहीं है । यद्यपि यहाँ दो वर्ग का अलग अलग मन्तव्य है फिर भी दोनों चत्रक दोष को नहीं मानते हैं । प्रथमवर्ग का कहना है कि अभ्यासदशा में भी साधनज्ञान का प्रामाण्य अनुमान से निश्चित कर के प्रवृत्ति होती है इस लिये यहां चक्रक अवसरप्राप्त नहीं है । प्रवृत्ति के आधार पर प्रामाण्य का निश्चय करना होता तब चत्रक की संभावना की जा सकती, किन्तु ऐसा नहीं है । यहाँ कोई भी यह नहीं कह सकता कि 'अन्वयव्यतिरेक व्यापार यानी व्याप्ति का संवेदन न होने से अनुमान का व्यापार यहाँ नहीं मान सकते'-क्योंकि व्याप्ति उपलक्षित न होने पर भी जैसे अकस्मात् धूमदर्शन के बाद परोक्ष af का अनुमान जहां हो जाता है वहां अन्वयव्यतिरेक का अनुसंधान मान लिया जाता है, उसी प्रकार यहाँ भी वह मान लेना होगा। अगर व्याप्ति आदि के अनुसंधान विना भी अनुमान माना जाय तब तो जिस को व्याप्ति का अत्यंत विस्मरण हो गया है उस को भी धूमादि को देख कर अग्नि आदि का ज्ञान हो जायगा । यह भी नहीं कह सकते कि 'साधन ज्ञान की फलजननशक्ति प्रत्यक्ष ही है। अर्थात् उसका ज्ञान प्रत्यक्ष से ही हो जायगा फिर अनुमानव्यापार वहां मानने की क्या जरूर ?' - क्योंकि जैसे दृश्यमान पर्वतादि में अग्निसंबंध परोक्ष होता है, प्रत्यक्ष-अग्राह्य है, इसलिये वहां अनुमान व्यापार के बिना उसका निर्णय नहीं हो सकता, उसी प्रकार वह फलजनन की शक्ति भी परोक्ष होने से उसका निर्णय अनुमानव्यापार के बिना नहीं हो सकता, निर्णय करने के लिये अनुमान का व्यापार आवश्यक ही है । कहा भी है- " अर्थ संवेदन के प्रभाव से [ अन्वय व्यतिरेक का ] स्मरण होता है और उससे उसकी दृष्टि अर्थात् प्रामाण्य का अनुमान होता है और तभी इच्छा होने पर दृष्ट अनुभूत पदार्थों का व्यवहार होता है ।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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