SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७० सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ प्रत्ययोऽस्ति यस्यार्थसंसर्गः । न चावस्थाद्वयतुल्यताप्रतिपादनं त्वया क्रियमाणं प्रकृतोपयोगि । तथाहिसांव्यावहारिकस्य प्रमाणस्य लक्षणमिदमभिधीयते 'प्रमाणमविसंवादिज्ञानं' इति । तच्च सांव्यवहारिक जाग्रहशाज्ञानमेव, तत्रैव सर्वव्यवहाराणां लोके परमार्थतः सिद्धत्वात् । स्वाप्नप्रत्ययानां तु निविषयतया लोके प्रसिद्धानां प्रमाणतया व्यवहाराभावात् कि स्वतः प्रामाण्यमुत परत इति चिन्तायाः अनवसरत्वात् । तच्च जाग्रज्ज्ञाने द्वितीयदर्शनात कि प्रमाणं कि वाऽप्रमाणम् ? तथा कि स्वतः प्रमाणं कि वा परतः ? इति चिन्तायाः पूर्वोक्तलक्षणे 'जाग्रत्प्रत्ययत्वे सती'ति विशेषणाभिधाने स्वप्नप्रत्ययेन व्यभिचारचोदनप्रस्तावानभिज्ञतां परस्य सूचयति । फलतः कोई भी ज्ञान अर्थ का निश्चित अव्यभिचारी न होने से अर्थ की व्यवस्था ही न हो सकने से अर्थमात्र का लोप हो जाएगा। इस प्रकार परतः प्रामाण्यवादी बौद्ध के प्रति प्रतिकूल आचरण अर्थात् स्वत: प्रामाण्य का समर्थन करने का अभिप्राय रखने वाले आप के द्वारा बौद्ध के अनुकूल ही आचरण कर दिया गया। यह इस प्रकार, ( स हि निरालम्बना.... ) आपने अर्थ व्यवस्था लप्त कर दी तो बौद्ध भी यही मानता है कि बाह्य अर्थ जैसा कुछ है ही नहीं; क्यों कि यह अनुमान होता है कि 'सर्वे प्रत्ययाः निरालम्बनाः, प्रत्ययत्वात् स्वप्नप्रत्ययवत् = अर्थात् जैसे स्वप्न ज्ञान बाह्यार्थ बिना ही निरालंबन होता है वैसे ही सभी ज्ञान निरालम्बन, बाह्य किसी विषय के बिना ही होते हैं, क्यों कि वे ज्ञानस्वरूप है।' (भवता तु जाग्रद्दशा........ ) आपने स्वप्न दशा में अर्थव्यभिचारी ज्ञान का दृष्टान्त लेकर जाग्रत् दशा के अर्थक्रिया ज्ञान भी अर्थव्यभिचारी होने की शंका ऊठा कर अर्थक्रिया ज्ञान की दृष्टि से जाग्रद् दशा व स्वप्न दशा में अभेद बता कर बाह्यार्थमात्र के विलोपक बौद्ध को सहायता ही कर दी। ( न हि तद्व्यतिरिक्त: प्रत्ययो.... ) आप यह नहीं कह सकते कि 'हम जिस अर्थक्रियाज्ञान में अप्रामाण्य शंका की संभावना करते हैं वह विलक्षण है क्योंकि जाग्रद् दशा स्वप्न दशा के अर्थक्रिया ज्ञानों से कोई ऐसा अलग विलक्षण ज्ञान ही नहीं हो सकता जिसमें अर्थसंसर्ग हो । एवं आपके द्वारा जाग्रद्दशा व स्वप्न दशा इन दोनों अवस्थाओं की अर्थव्यभिचारी ज्ञान से तुल्यता बताने का प्रयत्न प्रस्तुत में उपयुक्त भी नहीं है । क्योंकि प्रस्तुत है अर्थक्रियाज्ञान के प्रमाण्य में स्वत: या परत: संवेद्यता का निर्णय । इसमें दोनों अवस्थाओं की तुल्यता बताने का क्या उपयोग है ? ( तथा हि सांव्यावहारिकस्य ) यह इस प्रकार-सांव्यावहारिक प्रमाण का यह लक्षण कहा जाता है कि 'प्रमाणम् अविसंवादि ज्ञानम्' अर्थात् जिसमें अर्थ के साथ विसंवाद न होता हो ऐसा ज्ञान प्रमाण है, ऐसा सांव्यावहारिक ज्ञान जाग्रत दशा वाला ही ज्ञान होता है। क्योंकि लोक में सब व्यवहार जाग्रतदशा के ज्ञान को लेकर ही वास्तव में प्रसिद्ध है यानी चलते हैं, किन्तु स्वाप्निक ज्ञान को लेकर नहीं, (उदाहरणार्थ स्वप्न से अपने घर में मोदकों का घड़ा देखकर कोई लोगों को भोजन का निमन्त्रण नहीं देता है ) कारण यह है कि लोग मानते हैं कि स्वप्न अवस्था का ज्ञान स विषय शून्य होने के कारण वह प्रमाणभूत है ऐसा व्यवहार नहीं होता है। और इसीलिए स्वाप्निक ज्ञान में यह स्वत: प्रमाण है या परत: प्रमाण है ?' ऐसी चिन्ता का कोई अवसर ही नहीं है । तब जाग्रत दशा को अर्थक्रिया ज्ञान में यह स्वत: प्रमाण नहीं, परत: प्रमाण है, यह स्वाप्निक ज्ञान की तुलना से कैसे कह सकते ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy