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________________ ६८ सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १ यत्र हि साधनज्ञानपूर्वक मर्थक्रियाज्ञानमुत्पद्यते तत्राऽवस्तुशंका नैवाऽस्ति । न ह्यनग्नावग्निज्ञाने संजाते प्रवृत्तस्य दाहपाकाद्यर्थक्रियाज्ञानस्य सम्भव इत्यागोपालाङ्गनाप्रसिद्धमेतत् । न च स्वप्नार्थक्रियाज्ञानमर्थक्रियाभावेऽपि दृष्टमिति जाग्रदर्थक्रियाज्ञानमपि तथाऽऽशंकाविषयः । तस्य तद्विपरीतत्वात् । तथाहि स्वप्नार्थक्रियाज्ञानम् अप्रवृत्तिपूर्वं व्याकुलमस्थिरं च तद्विपरीतं तज्जाग्रदशाभावि, कुलस्तेन व्यभिचारः ! पारमार्थिक सत् पदार्थ नहीं किन्तु क्या संवृति स्वरूप आभास - ज्ञान मात्र से अर्थक्रिया यानी जल प्राप्ति निष्पन्न हुई ? किन्तु इन प्रकार की चिन्ताओं का अर्थक्रिया के अर्थात् जल प्राप्ति आदि के अर्थी को कोई प्रयोजन नहीं होता । प्रयोजन न होने का कारण यह है कि उसके वाञ्छित फल सिद्ध हो गया है, जल प्राप्ति हो गई है । ( तथयेमपि किं वस्तु .... ) जिस प्रकार जलार्थी को जलज्ञान के अनन्तर जलप्राप्ति स्वरूप अर्थक्रिया से निस्बत है और किसी शंका-कुशंका से नहीं, इस प्रकार यहां भी विज्ञान के बाद जो अर्थक्रिया का संवेदन होता है इसमें भी क्या वह अर्थक्रिया सचमुच वस्तुसत् यानी वास्तविक होने पर उसका संवेदन हुआ ? या उससे भिन्न अर्थात् अवस्तुभूत होने पर संवेदन हुआ ? ऐसी शंका नहीं होती है । ( तृड्दाहविच्छेदादि..... ) देखिये, जलार्थी जल के पास जलपान करके तृप्त हुआ तब उसकी तृषा छिप गई, इष्ट-वांछित जो था वह सिद्ध हो गया, तब उसको तृषाशान्ति का संवेदन स्वानुभव सिद्ध है | अब क्या वह चिन्ता करेगा कि यह तृषा शान्ति रूप अर्थत्रिया का ज्ञान सवस्तु में हुआ है या असद् वस्तु में ? नहीं, इस चिन्ता का कोई फल नहीं । प्र० - जहां शंका होती है वहां भाव अभाव दोनों का ज्ञान होने से उसे निश्चय तो करना पडता है कि क्या वह ज्ञान वस्तु में हुआ है या अवस्तु में ? ०- ( अवस्तुनि ज्ञानद्वया.... ) अर्थक्रिया यह अगर सही पदार्थ न होती अर्थात् अवस्तु यानी मिथ्या वस्तु ही होती तो उसमें प्रमाण अप्रमाण दोनों प्रकार का ज्ञान नहीं हो सकता । जल प्राप्ति व इससे तृषाशान्ति हो गई तब वहां कौन चिन्ता करने बैठता है कि यह ज्ञान सचमुच जल प्राप्ति व तृषा शान्ति में हुआ या किसी मिथ्या वस्तु में हुआ ? उ० 'अवस्तुनि ज्ञान यासंभवात्' ! अर्थात् जो वस्तु आकाशकुसुमवत् मिथ्या है असत् है- अलीक है उसके विषय में दो प्रकार का ज्ञान यानी विधि - निषेध उभय कोटि का संशयात्मक ज्ञान नहीं हो सकता, जैसे कि यहां आकाशकुसुम है या नहीं ? अथवा यह आकाशकुसुम है या नहीं ? इस प्रकार का संदेह नहीं हो सकता । वैसे ही अर्थक्रिया अगर असत् ही है तो उसके विषय में यह शंका नहीं हो सकती कि 'वह है या नहीं ! प्र० - भले वैसी शंका नहीं, किन्तु अर्थक्रिया स्वयं वस्तुसत् है या असत् ? ऐसी शंका तो हो सकती है न ? उ०- नहीं, जहां अर्थक्रिया ज्ञान साधनज्ञान पूर्वक ही होता है वहां अवस्तु की शंका कदापि नहीं होती । उदाहरणार्थ-दूर से हमें अग्नि का ज्ञान हुआ 'वह ज्ञान प्रमाण है या अप्रमाण' यह शंका हो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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