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सामायिक की विशालता ३१ "ध्यान" है और ध्येयाकार को प्राप्त "योगशतक" में "उपयोग" का उपयोग “समाधि" है।
समीपयोग के रूप में वर्णन किया है। योगशास्त्र में प्रणिधान और समा- उप=समीप, योग = व्यापार । पत्ति के दो प्रकार बताये गये हैं
समस्त अनुष्ठानों में शास्त्रोक्त विधि (१) संभेद प्रणिधान, जो सविकल्प ध्यान
का पालन ही उपयोग है। इसके द्वारा
योग की शीघ्र सिद्धि होती है। रूप है। (२) अभेद प्रणिधान, जो निर्विकल्प ध्यान
___इस कारण वह “समोपयोग" कह
लाता है। रूप है।
____ आगम ग्रन्थों में "तदचित्त" आदि समापत्ति-समाधि के दो भेद- पदों के द्वारा उपयोग तारतम्य बताया (१) सवितर्क समाधि-पर्याययुक्त गया है । उसके सम्बन्ध में आचार्य
स्थूल अथवा सूक्ष्म द्रव्य का हरिभद्रसूरिजी महाराज ने भी अपने ध्यान।
"योग-शास्त्र" में कहा है कि ध्येय पदार्थ (१) निर्वितर्क समाधि-पर्यायरहित
में तचित्त (एकाग्र) चित्त वाले को तथा स्थूल अथवा सूक्ष्म द्रव्य का
सतत उपयोग रहने से तत्वभासन (अनुध्यान।
भव ज्ञान) होता है; अर्थात् वस्तु का
वास्तविक स्वरूप समझ में आता है और पातंजल योगदर्शन और अभिमत समापत्ति की व्याख्या
उक्त तत्वभासन (अनुभव ज्ञान) ही इष्ट"क्षीणवृतेरभिजातस्येव मणे
सिद्धि का प्रधान अंग है। होतृ - ग्रहण-ग्राह्यषुतात्स्थ्यतद
“सकललग्धिनिमित्त साकारोपयोगजनता समापत्तिः।" त्वाद् इष्टसिद्धेः ।" उत्तम जातीय स्फटिक मणि अनुभवज्ञान साकारोपयोगमय है, तुल्य राजस एवं तामस वृत्ति अतः वह समस्त प्रकार की सिद्धियों और रहित निर्मल चित्त की गृहीता, लब्धियों का बीज है और इसके द्वारा ग्रहण एवं ग्राह्य विषयों में 'इष्ट सिद्धि" भी अवश्य होती है। स्थिरता होकर जो तन्मयता उपयोग के दो प्रकारहोती हैं वह 'समापत्ति' है। (अ) साकार, (ब) निराकार ।
(१) जिस प्रणिधान में ध्याता का ध्येय के साथ संश्लेष-सम्बन्ध रूप भेद होता
है, उसे संभेद प्रणिधान कहते हैं। (२) जिस प्रणिधान में ध्येय के साथ अपनी आत्मा का समस्त प्रकार से अभेद
भावित हो, उसे अभेद प्रणिधान कहते हैं ।
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