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________________ सामायिक की विशालता २३ होता, यदि प्रकट हो गया हो तो स्थायी नहीं रह सकता । शास्त्रों में कहा गया है कि अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व का, अप्रत्याख्यानीय कषाय देशविरति का, प्रत्याख्यानीय कषाय सर्वविरति का और संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्र का घातक है । समता सामायिक के अभिलाषी व्यक्तियों को पाँचों इन्द्रियों के विषयों पर, रसना लोलुपता पर और क्रोध आदि कषायों पर विजय प्राप्त करने के लिये निरन्तर प्रयास करने चाहिये । (१७) आयुष्य द्वार - संख्याता वर्षों के आयु वाले जीव चारों सामायिक प्राप्त कर सकते हैं और पूर्वप्रतिपन्न भी होते हैं । असंख्याता वर्षों के आयु वाले जीव सम्यक्त्व एवं श्रुत सामायिक को प्राप्त कर सकते हैं तथा पूर्वप्रतिपन्न भी अवश्य होते हैं । सामायिक आत्मा के विशुद्ध समता परिणाम स्वरूप है । उसकी प्राप्ति अथवा प्राप्त की हुई की रक्षार्थ कर्म की स्थिति अपेक्षित है, अर्थात् कर्म - प्रकृति का बल क्षीण होने पर, मन्द होने पर ही 'सामायिक' प्राप्त होती है । कर्म की प्रबलता में वृद्धि होने पर तो प्राप्त सामायिक - समताभावना भी नष्ट हो जाती है । कर्मसत्ता को निर्बल करने के लिये मुमुक्षु आत्माओं को चतुःशरणगमन आदि धार्मिक अनुष्ठानों में तत्पर रहना चाहिये । (१८) योग-द्वार - सामान्यतः मन, वचन और काया रूपी तीनों योगों में विवक्षित काल में चारों सामायिक प्राप्त हो सकती हैं और पूर्व - प्रतिपन्न भी होती हैं । विशेषता निम्नलिखित है औदारिक देह वालों को तीनों योगों में चारों सामायिक प्राप्त हो सकती हैं और पूर्वप्रतिपन्न भी होती है । वैक्रिय देह युक्त तीनों योगों में सम्यक्त्व एवं श्रुत सामायिक दोनों प्रकार से हो सकती है और देशविरति, सर्वविरति पूर्वप्रतिपन्न होती है । आहारक देह युक्त तीनों योगों में देश विरति के अतिरिक्त तीनों सामायिक पूर्वप्रतिपन्न होती हैं। केवल तैजस कार्मण में अन्तराल गति से सम्यक्त्व एवं श्रुत सामायिक पूर्वप्रतिपन्न होती है । केवली समुद्घात में सम्यक्त्व एवं सर्वविरति चारित्र पूर्वप्रतिपन्न होते हैं । केवल मनोयोग और वचनयोग किसी को होते ही नहीं हैं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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