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________________ सामायिक प्राप्ति का पूर्वाभ्यास १३ समप्त जीवों को आत्म-तुल्य दृष्टि से देखे बिना आत्म-दर्शन अथवा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हो सकती। हमें राग-द्वेष की दुष्ट-वृत्तियों को वश में करके माध्यस्थ भाव रखना चाहिये। कोई हम पर शीतल चन्दन का विलेपन करे अथवा कोई कुल्हाड़ी से हमारी देह के टुकड़े कर दे; कोई हमारी प्रशंसा (स्तुति) करे अथवा कोई हमारी निन्दा करे-हमें गालियां दे फिर भी हमारी दृष्टि दोनों के प्रति समान रहे । राग-द्वेष की भावना उत्पन्न न होने देना माध्यस्थ भाब है। हमें समस्त जड़ (पौद्गलिक) पदार्थों से वैराग्य धारण करना चाहिये । इन्द्रियों के समक्ष जड़ पदार्थों का आगमन होते ही मन उसमें इष्ट-अनिष्ट की कल्पना करने लग जाता है और तदनुरूप राग द्वेष की वृत्तियों की हमारे मन में खलबली शुरु हो जाती है। इष्टसंयोग से हर्ष और अनिष्टसंयोग से शोक का हमें अनुभव होने लगता है । परन्तु यदि हम वैराग्य-सिक्त हों तो बाह्य सुख-दु:ख के मधुर-कटु किसी भी प्रकार के प्रसंगों में माध्यस्थ भाव स्थायी रखा जा सकता है, राग-द्वष की वृत्तियों पर विजय प्राप्त की जा सकती है। ज्ञानी एवं विरक्त व्यक्ति को बाह्य सुख-दुःख, शान्ति-अशान्ति कर्म का विकार मात्र प्रतीत होती है। उपयूक्त उपायों के द्वारा सामायिक (समता भाव) का सतत अभ्यास जब पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है, तब उस प्रकार का विशिष्ट व्यक्ति मोक्षाभिलाषा से भी निवृत्त हो जाता है । सच्चिदानन्द की मस्ती में मस्त बने मुनि को मोक्ष-सुख के पकवान के रूप में समता-सुख का यहीं रसास्वादन करने को मिल जाता है, जिससे उसमें मोक्ष-सुख की तमन्ना भी नहीं रहती और यह समतारूपी रमणो इतनी स्वामि-भक्त एवं शक्तिशाली है कि यह अपने प्रियतम को मुक्तिपुरो के द्वार पर पहुँचा कर ही दम लेती है। सामायिक शब्द का जो नैश्चयिक अर्थ 'शुद्ध आत्मा' और 'शुद्ध आत्म-स्वभाव में होने वाली रमणता' है, वह इस प्रकार की विशिष्ट भूमिका वाले मुनि भगवानों को ध्यान में रखकर ही बताया गया है। . सामायिक अर्थात आत्म-स्वभाव में रमणता करने वाला निश्चय (भाव) चारित्र; जिस चारित्र को स्वयं तीर्थंकर भगवान भी अपने जीवन में ज्वलन्त रखते हैं और मुख्यतः सर्वप्रथम इसका ही उपदेश देते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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