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________________ १६६ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म कायोत्सर्ग और जिनाज्ञा कायोत्सर्ग के द्वारा जिनाज्ञा का पूर्णतः पालन होता है। आस्रव सर्वथा हेय (त्याज्य) है और संवर सदा उपादेय आचरणीय है । यह जिनेश्वरों की आज्ञा है, इसकी आराधना से मोक्ष प्राप्त होता है और उसकी विराधना भव में भ्रमण कराती है । जिनशासन जिनाज्ञा स्वरूप है। कायोत्सर्ग के द्वारा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूप आस्रवों का क्रमशः त्याग होता है और सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय एवं अयोगी दशारूप संवर का सेवन होता है। अत. कायोत्सर्ग के द्वारा समस्त प्रकार के संवर का सेवन होता होने से उसके द्वारा जिनशासन अथवा जिनाज्ञा की सम्पूर्ण आराधना होती है। कायोत्सर्ग और योग कायोत्सर्ग के द्वारा इच्छा आदि, अध्यात्म आदि, स्थान आदि (भक्ति) योग आदि समस्त प्रकार के योगों की साधना हो सकती है, जिससे समस्त योगों का उसमें समावेश है। (१) इच्छायोग, प्रवृत्तियोग, अध्यात्मयोग और भावनायोग के द्वारा श्रद्धा आदि का आधिक्य होता है और स्थैर्ययोग, सिद्धियोग के द्वारा श्रद्धा आदि परिपक्व होती है तब अपूर्वकरण रूप समाधि प्रकट होती है। तत्पश्चात क्रम से अनिवृत्तिकरण समाधि सिद्ध होने पर सम्यग-दर्शन प्राप्त होता है। (२) स्थान, वर्ण, अर्थ और आलम्बन योग के द्वारा कायोत्सर्ग में ध्येय का चिन्तन किया जाता है और इसके सतत अभ्यास से अनालम्बन योग प्रकट होता है। (३) देशविरति श्रावक एवं सर्वविरति साधु कायोत्सर्ग ध्यान के द्वारा क्रम से विशिष्ट विशुद्धि प्राप्त करता हुआ इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग की भूमिका को प्राप्त करता है । इस प्रकार कायोत्सर्ग के द्वारा समस्त योगों की साधना होती है । इस कारण यह समाधि स्वरूप है, समस्त योगों का सार है । कायोत्सर्ग एवं शुद्धात्मानुभव - - कायोत्सर्ग सम्यग्ज्ञान और सम्यग् क्रिया स्वरूप है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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