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________________ समापत्ति और कायोत्सर्ग १६३ (२) अभिभव-जो कायोत्सर्ग तितिक्षा, उपसर्ग, परीषह आदि सहन करने की शक्ति विकसित करने के लिये किया जाता है, उसे अभिभव कायोत्सर्ग कहते हैं। इसका समय प्रमाण अनिश्चित है, जो जघन्य से अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट से एक वर्ष प्रमाण भी हो सकता है। एक रात्रि की प्रतिमा आदि में भी अभिभव कायोत्सर्ग होता है। कायोत्सर्ग का स्वरूप --- "तावकायं ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं अप्पाणं बोमिरामि" पदों के द्वारा बताया गया है। __ "अरिहन्न परमात्मा को नमस्कार करके नहीं पारूँ तब तक देह को एक स्थान पर रखकर, वाणी का व्यापार बन्द करके मौन धारण करके और मन को प्रशस्त (शुभ) धर्म ध्यान में लगाकर अपनी काया का त्याग करता हैं।" अतः कायोत्सर्ग में स्थान, मौन, ध्यानरूप क्रिया के अतिरिक्त अन्य क्रिया के अभ्यास को (मिथ्यारोप को) छोड़ देता हूँ, अर्थात् भुजाओं को लटकती हई रखकर, वचन प्रहार को रोक कर, प्रशस्त ध्यान में तत्पर बना मैं एक स्थान पर खड़ा रहूँगा। इसके द्वारा कायोत्सर्ग का बाह्य और आन्तरिक स्वरूप बताया गया है। कायोत्सर्ग में ध्येय-कायोत्सर्ग में ध्येय निश्चित नहीं होता अर्थात ध्येय का कोई ऐसा निश्चित नियम नहीं कि येहो चाहिए, परन्तु (परिणाम के अनुसार) जिस प्रकार अध्यवसाय (परिणाम) स्थिर एवं विशुद्ध हो उस प्रकार से ध्येय पसन्द किया जा सकता है, जैसे (१) गुण - परमात्मा के ज्ञान आदि गुणों का चिन्तन करना। (२) जीव, अजीव आदि तत्व अथवा देव, गुरु, धर्मतत्व का चिन्तन करना। (३) स्थान वर्ण, अर्थ, आलम्बन योग अर्थात् मुद्रा, अक्षर भावार्थ और प्रतिमा आदि आलम्बन में चित्त को स्थिर करना। (४) आत्मीय दोष प्रतिपक्ष - स्वयं में विद्यमान राग, द्वेष, मोह आदि दोषों का निरीक्षण करके उनका निराकरण करने के लिए उनकी प्रतिपक्षी भावनाओं में उपयोग रखना आदि। उपर्युक्त गुण अथवा तत्व का चिन्तन आदि विद्या विवेक सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति के बीज हैं। कायोत्सर्ग का फल-इस प्रकार ध्येय के चिन्तन से आत्मोपयोग निर्मल होता है । तथा शुभ भाव के द्वारा अबंध्य पुण्य (पुण्यानुबंधी पुण्य) का सृजन होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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