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३. समापत्ति एवं गुणश्रेणी गुणश्रेणी का अद्भुत स्वरूप समझने से "समापत्ति" का रहस्य विशेषतया स्पष्ट होता है।
गुणश्रेणी-अर्थात् उदय समय से लेकर प्रत्येक समय पर असंख्य गुण-वृद्धि से कर्मदलिक की रचना करना, अर्थात कर्म-क्षय करने के लिये उन कर्मदलिकों को उचित रूप से जमाना। इस प्रकार की मुख्यतः ग्यारह गुण-श्रेणियां होती हैं, जो निम्नलिखित हैं
(१) प्रथम गुणश्रेणी--सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के समय होती है। उसका काल अन्तमुहर्त का है। उसके प्रारम्भ होने के समय जीव सबसे कम कर्म-पुद्गलों की रचना करता है। अर्थात् विपुल कर्म-राशि में से उदयावलिका में लाकर क्षय करने योग्य कर्म-स्कन्धों को उदय क्षण से लेकर असंख्य गुने अधिक-अधिक जमाता है, उनमें प्रथम समय सबसे कम, दूसरे समय उससे असंख्य गने, उससे असंख्य गुने तीसरे समय इस प्रकार अन्तमुहर्त के असंख्य समय तक असंख्य गुने अधिक-अधिक कर्म-पुद्गल यावत् श्रेणी के अन्तिम समय तक रचता है।
(२) देशविरति प्राप्त करने के समय जोव दूसरी गुणश्रेणी की रचना करता है, जिसका काल भी अन्तमुहर्त होते हुए भी प्रयम की अपेक्षा छोटा अन्तमुहर्त होता है, प्रथम की अपेक्षा कर्म दलिक असंख्य गुने अधिक होते हैं। इस प्रकार ही आगे सर्वविरति आदि समस्त गुणश्रेणियों में समझना चाहिये-अर्थात् अन्तम हर्त का काल अल्प और कर्म दलिकों की संख्या अधिक होती है; अर्थात् आगे-आगे की भूमिकाओं में अध्यात्मपरिणाम की विशुद्धि अधिकाधिक होती है। जिससे अल्पकाल में भी पर्याप्त कर्म-पुंजों का क्षय होता है।
उत्तरोत्तर अध्यवसाय की विशुद्धि बताने के लिये ही कहा है कि "यह सम्यग्दर्शन, देशविर ति, सर्वविरति गुणधारक भी क्रमशः असंख्य गुने कर्म-निर्जरा करने वाले होते हैं।"
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