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________________ मापत्ति और समाधि १४५ (२) चौविसत्थो एवं वन्दन के द्वारा ( अर्थात् देव वन्दन एवं गुरु वन्दन के द्वारा) चित्त स्थिर होता है । (३) कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान के द्वारा चित्त तन्मय होने पर " समापत्ति" प्रकट होती है । तीन प्रकार के जाप से समापत्ति (१) " नमो अथवा अहं" आदि पद के भाष्य जाप से चित्त निर्मल होता है । (२) " नमो अथवा अहं” आदि पद के उपांशु जाप से चित्त स्थिर होता है । (३) " नमो अथवा अ" आदि पद के मानसिक जाप से चित्त तन्मय होने पर " समापत्ति" सिद्ध होती है । नमस्कार महामन्त्र के द्वारा समापत्ति भयस्थान में रहा हुआ मानव भय मुक्त होने के लिये भयहीन स्थान का आश्रय लेता है । रोगग्रस्त व्यक्ति रोग मुक्त होने योग्य चिकित्सा कराता है और विष से मूच्छित बना मनुष्य विषहरमन्त्र का प्रयोग करता है । संसारी व्यक्ति को भी भव (कर्म) का भय सताता है, कर्म की व्याधि उसे पीड़ित करती है और मोह ( राग-द्वेष, विषय, कषाय) रूपी त्रिष ने उसे मूच्छित कर दिया है । भव के भय से मुक्त होने के लिये निर्भय अरिहन्त आदि का शरण ग्रहण करना चाहिये । कर्मरोग को नष्ट करने के लिए "तप" रूपी चिकित्सा करनी चाहिए और मोह - विष को उतारने के लिये स्वाध्याय (शास्त्राध्ययन) करना चाहिये । नवकार महामन्त्र के जाप से भय, रोग और विष तीनों का प्रतिकार होता है क्योंकि (१) नमस्कार महामन्त्र के पाँचों परमेष्ठी स्वयं निर्भीक हैं और अन्य को निर्भय करने वाले हैं; अतः उनकी शरण स्वीकार करने से निर्भयता आती है, भय का भाव दूर होने पर चित्त निर्मल होता है । (२) परमेष्ठि- नमस्कार विनय वैयावच्च स्वरूप अभ्यन्तर तप है । उसके निरन्तर स्मरण से कर्मरोग का निवारण होता है । कर्मरोग क्षीणप्राय होने से चित्त स्थिर होता है । (३) नमस्कार महामन्त्र स्मरण, चिन्तन, मनन, निदिध्यासन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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