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सर्वज्ञ कथित: परम सामायिक धर्म
इच्छा, प्रवृत्ति आदि योग के द्वारा समापत्ति
(१) इच्छा और प्रवृत्ति योग के द्वारा चित्त निर्मल होता है । (२) स्थैर्य योग चित्त को स्थिर करता है |
(३) सिद्धियोग से चित्त में तन्मयता आती है, जिससे " समापत्ति" प्रकट होती है ।
पाँच प्रकार के आशय से समापत्ति-
(१) प्रणिधि एवं प्रवृत्ति के द्वारा चित्त निर्मल होता है ।
(२) विघ्नजय के द्वारा चित्त स्थिर होता है
(३) सिद्धि और विनियोग के द्वारा चित्त तन्मय होने पर " समा
पत्ति" सिद्ध होती है ।
स्थान आदि योगों के द्वारा समापत्ति
(१) स्थान एवं वर्णयोग के द्वारा मन निर्मल होता है ।
(२) अर्थ और आलम्बन योग से मन स्थिर होता है ।
(३) अनालम्बन योग में तन्मयता होने पर " समापत्ति" सिद्ध होती है ।
दान आदि से समापत्ति
(१) दान देने से चित्त निर्मल होता है ।
(२) शील का पालन करने से चित्त स्थिर होता है ।
(३) तप के द्वारा तन्मयता आने पर "समरसभाव" प्रकट होता है, वही “समापति” कहलाता है ।
मैत्री आदि चार भावनाओं से समापत्ति
(१) मैत्री एवं करुणा भावना चित्त को निर्मल करती है ।
(२) प्रमोद भावना चित्त को स्थिर करती हैं ।
(३) मध्यस्थ भावना (समता) चित्त को तन्मय बनाती हैं । और चित्त तन्मय होने पर " समापत्ति" होती है ।
पिण्डस्थ आदि ध्यान से समापत्ति
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(१) पिण्डस्थ ध्यान से चित्त निर्मल होता है ।
(२) पदस्थ एवं रूपस्थ ध्यान से चित्त स्थिर होता है ।
(३) रूपातीत ध्यान में चित्त तन्मय होता है, वही " समापत्ति" है
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