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________________ १४२ सर्वज्ञ कथित: परम सामायिक धर्म इच्छा, प्रवृत्ति आदि योग के द्वारा समापत्ति (१) इच्छा और प्रवृत्ति योग के द्वारा चित्त निर्मल होता है । (२) स्थैर्य योग चित्त को स्थिर करता है | (३) सिद्धियोग से चित्त में तन्मयता आती है, जिससे " समापत्ति" प्रकट होती है । पाँच प्रकार के आशय से समापत्ति- (१) प्रणिधि एवं प्रवृत्ति के द्वारा चित्त निर्मल होता है । (२) विघ्नजय के द्वारा चित्त स्थिर होता है (३) सिद्धि और विनियोग के द्वारा चित्त तन्मय होने पर " समा पत्ति" सिद्ध होती है । स्थान आदि योगों के द्वारा समापत्ति (१) स्थान एवं वर्णयोग के द्वारा मन निर्मल होता है । (२) अर्थ और आलम्बन योग से मन स्थिर होता है । (३) अनालम्बन योग में तन्मयता होने पर " समापत्ति" सिद्ध होती है । दान आदि से समापत्ति (१) दान देने से चित्त निर्मल होता है । (२) शील का पालन करने से चित्त स्थिर होता है । (३) तप के द्वारा तन्मयता आने पर "समरसभाव" प्रकट होता है, वही “समापति” कहलाता है । मैत्री आदि चार भावनाओं से समापत्ति (१) मैत्री एवं करुणा भावना चित्त को निर्मल करती है । (२) प्रमोद भावना चित्त को स्थिर करती हैं । (३) मध्यस्थ भावना (समता) चित्त को तन्मय बनाती हैं । और चित्त तन्मय होने पर " समापत्ति" होती है । पिण्डस्थ आदि ध्यान से समापत्ति www (१) पिण्डस्थ ध्यान से चित्त निर्मल होता है । (२) पदस्थ एवं रूपस्थ ध्यान से चित्त स्थिर होता है । (३) रूपातीत ध्यान में चित्त तन्मय होता है, वही " समापत्ति" है I Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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