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१२० सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग-ये पाँच आश्रव के "प्रमुख भेद हैं, अर्थात् कर्म-बन्ध में मुख्य हेतु हैं। आत्मा को दूषित करने वाले होने के कारण ये "दोष" कहलाते हैं। ये पांचों दोष ज्यों-ज्यों घटते जायें, जीर्ण होते जायें, त्यों-त्यों सामायिक को विशुद्धि में वृद्धि होती जाती है, जैसे -
(१) पिथ्यात्व के अभाव से परम विशुद्ध “सम्यवत्व सामायिक" प्रकट होती है।
(२) अविरति एवं प्रमाद के त्याग से परम विशुम “सर्वविरति सामायिक" प्राप्त होती है।
(३) कषाय का विच्छेद होने से परम विशुद्ध “यथाख्यात" चारित्र (सामायिक) का लाभ होता है ।
(४) मन, वचन और काया के समस्त व्यापारों का निरोध होने से परम विशुद्ध शैलेशीकरण-अयोगी अवस्था प्राप्त होती है।
आश्रव के निरोध का नाम संवर हैं। सामायिक संवर स्वरूप है।
परमात्मा की "आज्ञा" और "सामायिक"-आश्रव संसार का कारण है, संवर मोक्ष का कारण है। इस कारण ही आश्रव का त्याग और संवर का पूर्णतः स्वीकार जिनेश्वरों की आज्ञा है। अन्य समस्त आदेश और अनुष्ठान इसके ही विस्तार हैं।
सामायिक में उपर्युक्त समस्त आश्रवों (सावद्य योगों) का त्याग होता है और समस्त प्रकार के संवर (निरवद्य अनुष्ठान) का सेवन होता है, जिससे सामायिक जिनाज्ञा स्वरूप है। सामायिक के सेवन से जिनाज्ञा का पूर्णतया पालन होता है और जिनाज्ञा का पालन करने से अवश्य मोक्ष प्राप्त होता हैं । अतः समस्त मुमुक्षुओं का “सामायिक" आवश्यक कर्तव्य हैं।
इस विधयात्मक सामायिक एवं निषेधात्मक सामायिक में समस्त मोक्ष-साधक अनुष्ठानों का अन्तर्भाव हो आता हैं ।
"करेमि" शब्द के द्वारा समस्त प्रकार के शुभ अनुष्ठान करने का विधान है।
“पच्चक्खामि" शब्द के द्वारा समस्त प्रकार के अशुभ अनुष्ठानों को त्याग करने का निर्देश है।
"सन्ध" शब्द समस्त मूलगुणों एवं उत्तरगुणों का द्योतक है।
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