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________________ सामायिक सूत्र : शब्दार्थ एवं विवेचना १११ भेद अर्थात् कालकृत अवस्था "पर्याय" हैं अथवा चिद्विवर्तन ग्रंथी अर्थात् आत्म-परिणाम की ग्रन्थी “पर्याय" हैं, द्रव्य को क्रमभावी अवस्था पर्याय हैं। इस प्रकार विकालिक स्व आत्मा का भी एक समय में अनुभव कर लेने वाला वह जीव मुक्ताफलों (मोतियों) को अपनी माला में समाविष्ट कर लेता है, उसी प्रकार से चिद्विवों को चेतना में समा कर, तथा विशेषण-विशेष्यत्व की कल्पना दूर होने पर मोतियों की श्वेतता-तेजस्विता माला में अन्तर्गत की जाती है, उसी प्रकार से चैतन्य को भी चेतन में हो अन्तर्गत करके (केवल माला की तरह) केवल आत्मा को ही जानता है, उसका ही अनुभव करता है। तत्पश्चात् उत्तरोत्तर क्षण में कर्ता, कर्म अथवा क्रिया के भेदों का क्षण विलय होने पर निष्क्रिय चिन्मात्र भाव को प्राप्त करता है और किसी प्रसिद्ध मणि तुल्य निष्कंप, निर्मल प्रकाशयुक्त उस आत्मा का मोह-अन्धकार अवश्य नष्ट होता है । इस प्रकार शद्ध आत्म स्वरूप की भावना के द्वारा आत्मानुभूति होती है वह निरालम्बन योग का ही एक अंश है जो वर्तमान में भी प्राप्त हो सकता हैं । कलिकालसर्वज्ञ आचार्यदेव श्री हेमचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने अपने योगशास्त्र ग्रन्थ के अनुभव प्रकाश में अपने व्यक्तिगत अनुभव बताते हुए कहा है कि जिस प्रकार सिद्धरस के स्पर्श से लोहा स्वर्ण बन जाता है, उसी प्रकार से परमात्म-ध्यान के प्रभाव से आत्मा परमात्मस्वरूप धारण करती है। जिनस्वरूप होकर ' जिन" का ध्यान करने वाला अवश्य ही "जिन" बनता है । प्रत्येक जीवात्मा का यह सहज स्वभाव है कि वह जिस वस्तु का १ जिस प्रकार कोई धनवान हार क्रय करने से पूर्व उसकी पूर्णतः जाँच करता है, हार, मोती और उसकी श्वेतता, ओप आदि की परीक्षा करता है, परन्तु हार पहनने के समय अन्य समस्त विकल्पों को त्याग कर केवल हार की ओर ही लक्ष्य रखता है, उसे ही पहचानता है, देखता है तो ही उसे पहनने का आनन्द अनुभव कर सकता है, अन्यथा नहीं; उसी प्रकार से आत्मा भी प्रथम अरिहन्त परमात्मा के शुद्ध स्फटिक तुल्य निर्मल स्वरूप का ध्यान धरती है। तत्पश्चात् उस ध्यान का प्रवाह ध्याता में विद्यमान परमात्म-स्वरूप का भान कराता है, अर्थात् मेरी आत्मा में भी निश्चय-नय से परमात्मा तुल्य द्रव्य-गुण-पर्याय हैं, ऐसा अनुभव होता है और फिर उपर्युक्त प्रक्रिया के द्वारा परमात्मा के साथ आत्मा की तन्मयता सिद्ध होती है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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