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________________ ६६ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म जिनके चित्त शास्त्रों के अध्ययन, मनन एवं परिशीलन से निर्मल हो गये हैं वे मुनि जड़ एवं चेतन पदार्थों के विविध स्वरूपों एवं उनके स्वभाव से परिचित होते हैं, जिससे वे इष्ट-अनिष्ट पदार्थों के संयोगवियोग में सन्तुलन बनाये रख सकते हैं, मध्यस्थता को स्थायी रख सकते हैं। __ आगम सम्बन्धी ज्ञान से परिणत बने मुनियों की चित-वृत्ति अत्यन्त निर्मल एवं स्थिर होती जाती है, जिससे वे आत्मा एवं परमात्मा के ध्यान में तन्मय हो सकते हैं और ऐसे ध्यानमग्न मुनि को समता प्राप्त होती है । ध्यानाध्ययनाभिरतिः प्रथमं प्रश्चात् तु भवति तन्मयता। सूक्ष्मालोचनया संवेगः स्पर्शयोगश्च ।।-(षोडषक) संयम अंगीकार करने वाले साधु की सर्वप्रथम शास्त्राध्ययन और ध्यान-योग में निरन्तर प्रवृत्ति होती है। तत्पश्चात् वह दोनों में उत्तरोत्तर तन्मय होता रहता है, तथा "तत्वार्थ" के सूक्ष्म चिन्तन से तीव्र संवेग एवं स्पर्शयोग भी प्रकट होता है। इस प्रकार समपरिणामरूप सामायिक में शास्त्र योग (वचन अनष्ठान) एवं ध्यानयोग की प्रधानता होती है, क्योंकि शास्त्राध्ययन एवं ध्यानाभ्यास के बिना तात्विक समता प्रकट नहीं होती। अध्यात्म एवं योगविषयक शास्त्रों के अध्ययन, मनन से समस्त जीवों के प्रति समानता एवं आत्मा के पूर्ण शुद्ध स्वरूप का ज्ञान प्राप्त होता है. जिससे उसे आत्मसात करने की कला प्राप्त होती है। आगम सम्बन्धी ज्ञान से द्रव्यानुयोग विषयक सूक्ष्म तत्व-दृष्टि प्राप्त होने पर धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान की क्षमता प्रकट होती है । __स्याद्वाद एवं कर्मवाद के बोध से समस्त जीवों एवं समस्त दर्शनों के प्रति समदृष्टि एवं संसार की विविध विचित्रताओं के मूलभूत कारणों का ज्ञान होने पर सत्यदृष्टि खुलती है। तराजू के दोनों पलड़ों के समान सर्वत्र, सर्वदा समदृष्टि एवं समवृत्ति प्रकट करने के लिये सत्शास्त्रों के अध्ययन, मनन एवं ध्यान का सतत सेवन करना आवश्यक है। शास्त्रोक्त सदनुष्ठान के सेवन से अरिहन्त परमात्मा की आज्ञा का पालन होता है, जिसके द्वारा समस्त ध्यान आदि कार्यों की सिद्धि होती है। ___ कहा भी है कि "आगम की आराधना से ही श्रुत एवं चारित्र-धर्म प्राप्त होता है। शास्त्र विरुद्ध व्यवहार से अधर्म होता है।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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