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. सर्वज्ञ कथित: परम सामायिक धर्म
"उपदेश पद" में कहा है कि - " उपयुक्त भावरूप अप्रमाद ही "शुद्ध आज्ञायोग" है, अर्थात् जहाँ-जहाँ उपयोग है, वहाँ वहाँ जिनाज्ञा की आराधना है और जहाँ-जहाँ उपयोग नहीं है वहाँ जिनाज्ञा की विराधना है ।
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साधु-दिनचर्या में भी उपयोग के लिए विशेष कायोत्सर्ग किया जाता है, उसका भी यही रहस्य है ।
"उपयोगे धर्मः " - यह अत्यन्त प्रसिद्ध पंक्ति भी इसी भाव को सूचित करती है । उपयोग एवं धर्म का कितना प्रगाढ़ सम्बन्ध है, वह सहज ही समझा जा सकता है ।
साधुधर्म हो अथवा श्रावन धर्म, श्रुतधर्म हो अथवा चारित्रधर्म अथवा उसके कोई भी भेद-उपभेद हों जैसे अहिंसा, संयम अथवा तप, शील, तप अथवा भाव ये समस्त धर्म के प्रकार यदि उपयोग से युक्त हों तो परमार्थतः धर्मस्वरूप माने जाते हैं ।
दान,
उपयोग जीव का लक्षण है जो सदा जीव के साथ ही रहता है, परन्तु उक्त उपयोग जब तक अशुद्ध होता है, राग-द्वेष से मलिन बना हुआ होता है, तब तक समस्त शुभ क्रिया निरर्थक है । अनादिकालीन अशुद्ध उपयोग को जो शुभ एवं शुद्ध रूप में परिवर्तित कर दे उसे "धर्म" कहते हैं। शुभ उपयोग अशुभ उपयोग को दूर करके आत्मा का शुद्ध उपयोग उत्पन्न करता है । सामायिक शुभ उपयोग स्वरूप है जिससे उसके द्वारा अशुभ उपयोग टल जाता है और शुद्ध उपयोग का प्रादुर्भाव होता है ।
अशुद्ध उपयोग ही संसार है और सम्पूर्ण शुद्ध उपयोग मोक्ष है । उपयोगयुक्त सामायिक अशुद्ध उपयोग रूप संसार से बाहर निकाल कर आत्मा को शुद्ध उपयोग रूप मोक्ष प्राप्त कराती है।
इस प्रकार आत्मा को लक्ष्य करके किया गया "भन्ते" सम्बोधन उपयोग का विशेष महत्व बताने वाला है ।
" भन्ते" पद के द्वारा देवतत्व का महत्व - " भन्ते" (भदन्त ) पद से समस्त जिनेश्वर, समस्त सिद्ध भगवान् तथा अतिशय ज्ञानी भगवन् को भी सम्बोधित किया जाता है । भो भो जिनादयो भदन्ताः । हे जिनेश्वर आदि भगवन् ! मैं आपकी साक्षी से सामायिक ग्रहण करता हूँ ।
१ एत्तोउ अप्पमाओ भणिओ सव्वत्य भगवया एवं ।
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