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परीषह - जयी
समन्तभद्र जी राजा के सम्मुख खड़े हो गये । सभी लोग उन्हें आश्चर्य से देखने लगे । कईयों ने मन ही मन कहा कि - "अरे कितना युवा तेजस्वी महंत है । नाहक अपनी जिद में जान गँवाने के लिए तैयार हुआ है । अरे शिवमूर्ति को नमस्कार करके अपनी जान क्यों नहीं बचाता । क्या मूर्खता करने जा रहा है ।" अभी भी सोच लो महन्तजी । यदि मृत्यु से बचना चाहते हो तो अभी भी हमारी बात मान कर शिवलिंग को नमस्कार कर लो।" महाराज ने पुनः समझाने के स्वर में कहा । -
अन्य उपस्थित विद्वानों एवं नागरिकों ने भी महाराज के कथन को
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दुहराया !
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"ठीक है तो आप अपनी शक्ति का परिचय दीजिए । समन्तभद्र को टस से मस न होते देख महाराज शिवकोटी ने कहा । महाराज की आज्ञा होते ही समन्तभद्राचार्य ने अपनी आँखें बन्द की । पंचपरमेष्टी प्रभु का स्मरण और ध्यान किया । वे अपने इष्टदेव चन्द्रप्रभु के अतिशय का वर्णन करते हुए “चन्द्रप्रभु चन्द्रमरीचिगौरम् ” पद्यांश का सस्वर उच्चारण करने लगे । इस रचना के साथ जैसे ही उन्होंने शिवलिंग को नमस्कार किया- शिवलिंग विस्फोट के साथ फट गया । उसमें से श्री चन्द्रप्रभुभगवान की प्रतिमा प्रकट हुई ।
इस चमत्कार को देखकर सभी हक्के-बक्के रह गये । आश्चर्य में डूब गये। लोगों ने कंठ से चन्द्रप्रभु भगवान की जय 'जैनधर्म की जय' के नारे गूंजने
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लगे । लोग भावविभोर होकर समन्तभद्राचार्य के चरणों का स्पर्श करने लगे । स्वयं महाराज शिवकोटी उनके चरणों में नतमस्तक थे । पर इस सबका समन्तभद्र को ध्यान ही कहाँ था - वे तो तन-मन से समर्पित थे अपने आराध्य के चरणों में । वे देह में थे ही कहाँ ।
जब स्तोत्र
पूरा
हो गया । उन्होंने आँखें खोली ।
" महाराज | योगीराज हमें क्षमा करें । आपकी शक्ति प्रभाव देखर हम
सब चकित हैं ।
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