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________________ (समन्तभद्राचार्य “कर्मों का फल हर मनुष्य को भोगना ही पड़ता है । अरे तीर्थंकर भी इससे नहीं बच सके ! यह तो मेरे ही पूर्वजन्म के अशुभ कर्मों का फल है कि मुझे इस मुनि वेश में भी ये कष्ट भोगने पड़ रहे है । यह असातावेदनीय कर्म का ही उदय है कि मैं भस्मक व्याधि से पीड़ित हो रहा हूँ | धर्मसाधना के लिए एक ही बार रूखा सूखा भोजन करने वाला मैं भूख के पन्जे में फंस गया हूँ जो भी खाता हूँ ,भस्म हो जाता है ,और भूख ही लगी रहती है । मेरा चित्त ध्यान में लगने के वजाय भूख में ही लगा रहता है ।" इस प्रकार अपनी व्याधि पर चिन्तन कर रहे थे मुनि समन्तभद्र । ___दक्षिण भारत के काशी कहे जाने वाले नगर कांची में धर्मनिष्ट परिवार में जन्मे ,जैन संस्कारों में पले, समन्तभद्र बाल ब्रह्मचारी तपस्वी थे । छोटी सी उम्र में ही आपने जैनदर्शन ,न्याय ,व्याकरण और साहित्य का गहन अध्ययन किया। ज्ञान के साथ चारित्र धारण कर मुनि दीक्षा लेकर तपस्वी मुनि बन गए । ज्ञान और चरित्र का सुभग मिलन आपके व्यक्तित्व की विशेषता थी । समन्तभद्र के ज्ञान और चारित्र से जैन धर्म और साहित्य की महती प्रभावना बढ़ी । आपके उपदेशों से अनेक लोग जीवन के सत्य को समझकर आत्म साधना में लीन हुए। समन्तभद्र ने विपुल साहित्य की रचना की । श्रावक अपने कर्तव्यों से विमुख न हो ,अतः उनके उत्तम आचरण के लिए "रत्नकरण्ड श्रावकाचार्य ' जैसे ग्रन्थ की रचना की । यह ग्रन्थ श्रावक के लिए आचरण की गीता है । ऐसे महान मुनि समन्तभद्राचार्य शरीरिक व्याधि से त्रस्त थे । यह सत्य है कि वे शरीर की व्याधि से त्रस्त थे, परन्तु उनका मन कही भी कमजोर नहीं था । वे आत्मचिंतन में अधिकाधिक व्यस्त रहने का प्रयत्न करते ,परन्तु शरीर की पीड़ा उन्हें स्थिर न रहने देती । उनकी साधना में विक्षेप पड़ता । यही चिन्ता उन्हें सताती रहती । इसी चिन्तन में वे उदास होकर अपने पाप कर्मों के उदय की आत्मालोचना करते। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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