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________________ ---xxxxxxपरीषह-जयीXXXXXXXX गई और अपनी पैनी चोंच से उनके मस्तक ,भाल प्रदेश ,आँखों ,कानों पर आघात करने लगी । हर आघात के बाद उसे क्रूर आनंद की अनुभूति होती थी। उसे एक राक्षसी आनंद और संतोष होता था । हर चोंच मारने से मुनि के शरीर से रक्त की धारा फूट पड़ती थी । इस बहते हुए रक्त को देखकर वह मन ही मन फूल जाती और कहती - "ले दुष्ट, जैसा तूने मुझे मारा था । मेरा रक्त बहाया था वैसे ही मैं तुझे मारूँगी । रक्त से स्नान कराऊँगी । ये ले अब तेरी वे आँखें जिनमें वासनाओं के नाग लहराये थे उन्हें ही इस शरीर से अब अलग कर रही हूँ।" मन में कहते कहते उसने मुनि की दोनों आँखें ही फोड़ डाली । आँखों से रक्त की धारा बह चली । .“ले इन कानों का अस्तित्व मिटा रही हूँ । जिसने मेरे रूदन को नहीं सुना था । जो अच्छाई सुने के लिए तैयार नहीं थे । " ऐसा विचार कर उसने कानों को काट-काट कर उसके पर्दो को ही चीर डाला । “दुष्ट इसी मुख से तूने मुझे गालियाँ दी थी ।" चील ने मुनि के मुख पर अनेक बार चोंच के वार करके उसे विकृत बना दिया । . इसी प्रकार उनके हाथ,पीठ,पोट,लिंग आदि को अपने तीक्ष्ण प्रहारों से क्षत-विक्षत कर दिया । मुनिचिलातपुत्र का पूरा शरीर रक्त की धाराओं से रंग • गया । शरीर के हर अंग से रक्त धारायें बहने लगी थी । उनकी यह हालत देख कर व्यतंरी हर्षनाद कर रही थी । ___ व्यतंरी कभी चीलका कभी विषैली मक्खी का कभी अन्य विषैले जन्तुओं का रूप धारण कर उनके शरीर को अपार वेदना पहुँचाती रही । चिलातपुत्र को अब यह संकट ,पीड़ा का जैसे कोई अनुभव ही नहीं हो रहा था । ज्यों-ज्यों उन पर चोंच का आघात होता त्यों-त्यों उनकी दृढ़ता और भी बढ़ती जाती । वे आत्मा में अधिक लीन होते जाते । हर चोट उनकी दृढ़ता बढ़ाती । वे अधिकाधिक आत्मा के साथ जुड़ते जाते । देह से उनका संबंध ही टूट गया । समाधि में लीन चिलातमुनि देह से बेखबर ही हो गए । व्यतंरी का हर आघात मानों उनके कर्मों की निर्जरा में सहायक बनता गया । उन्होंने देह को छोड़ा पर धैर्य न छोड़ा । आखिर वे नश्वर देह से मुक्त होकर मुक्तिधाम के वासी बने । उनकी दृढ़ता तप के समक्ष व्यतंरी भी हार गई। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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