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Xxxxxxxx परीषह-जयीxxxxxxxx प्रजा का द्रोही है । मैं अपनी बेटी का हाथ उसके हाथों नहीं सौंप सकता ।" रूद्रदत्त ने स्पष्ट इन्कार करते हुए कहा ।
भातृमित्र निराश होकर जंगल में लौटा । उसने चिलातपुत्र के कान भरे अपनी ममेरी बहन सुभद्रा के रूप सौन्दर्य का बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन किया । चिलातपुत्र को उकसाया कि वह सुभद्रा का हरण कर लाये और उससे विवाह कर ले । भातृमित्र स्वार्थ के साथ खिलवाड़ करने जा रहा है ।
चिलातपुत्र की वासनायें भातृमित्र द्वारा सुभद्रा के रूप के वर्णन को सुनकर प्रज्वलित हो उठीं । उसने निश्चय किया कि वह सुभद्रा को अवश्य प्राप्त करेगा । इन्हीं दुष्ट विचारों के साथ वह छिपकर रात्रि के समय राजगृही नगरी में पहुँचा । रूद्रदत्त के घर से उसने सुभद्रा का हरण कर लिया । ___एकाएक इस संकट में घिरी सुभद्रा बचाओ-बचाओ की आवाजें करके रोने लगी । सारा घर जाग गया । आजू-बाजू के लोग जाग पड़े । चारों ओर बचाओ-बचाओ की गूंज उठने लगी । यह सामाचार जैसे ही सम्राट श्रेणिक को मिला वे अपने सैनिकों के साथ अपने नगर की कन्या को छुड़ाने स्वयं दौड़ पड़े।
चिलातपुत्र ने देखा कि वह सुभद्रा को लेकर भागने में सफल नहीं हो सकेगा । श्रेणिक के सैनिक उसे पकड़ लेंगे । उसे मार डालेंगे । यह विचार आते ही उसने अपनी जान बचाने के लिए सुभद्रा को कंधे से नीचे पटक दिया । उसकी दुष्टता इस पराकाष्ठा पर पहुँची कि उसने सुभद्रा का कत्ल कर दिया । उसे लगा कि जिस लड़की को वह नहीं भोग सका उसे दूसरा क्यों भोगे । वासना की तीव्रता और दुष्टता की पराकाष्ठा का परिणाम सुभद्रा की मौत बना ।
सुभद्रा का कत्ल कर अपनी जान बचाने के लिए चिलातपुत्र भागने लगा। राजा श्रेणिक और उसके सैनिक उसे पकड़ने के लिए पीछे-पीछे दौड़ रहे थे ।
चिलातपुत्र ने देखा कि सामने वैभारपर्वत है । वह उसमें छिपने के लिए उस पर चढ़ने लगा । वहाँ उसने देखा कि यहाँ मनिराज का संघ विराजमान है। एकाएक चिलातपुत्र के मन में विचार आया – “सैनिकों के हाथों मरने से अच्छा है कि मैं तप धारण कर समाधिमरण करूँ । " बस एकाएक दुष्ट विचारों में परिवर्तन हुआ । चिलातपुत्र के अंतर की विषैली कालरात्रि में यह धर्मका सूर्य उदति हो गया । इसी विचार से उसने आचार्य मुनिदत्त जी से व्रत ग्रहण करने की याचना की “महाराज मैं तप में लीन होना चाहता हूँ । आप कृपा करके मुझे
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