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________________ परीषह - जय पालन करते हुए जैन धर्म और दर्शन का गहन अध्ययन करके धर्म की सेवा करेंगे।" अकलंक ने भी अपनी दृढ़ भावना व्यक्त की । दोनों भाई अपने दृढ़ विचार व्यक्त कर, माँ बाप को प्रणाम कर कक्ष से बाहर चले गए । पुरूषोत्तम और पद्मावती टूटे दिल और फटी आँखों से बेटों का जाना देखते रहे । दोनों भाईयों ने घर गृहस्थी के कार्य से अपने मन को शास्त्रों के अध्ययन में लगाया । तीक्ष्ण बुद्धि और सच्ची लगन के कारण चन्द दिनों में ही वे दर्शन शास्त्र के महान पण्डित बन गए । जैन धर्म के शास्त्रों का उन्होंने पूर्णरूपेण अध्ययन किया, और अन्य दर्शनों का ज्ञान प्राप्त किया । * * * 44 'भइया ! क्यों हम न बौद्ध धर्म का पूर्ण अध्ययन कर उसमें पारंगत होकर उसके अवैज्ञानिक तत्वों को प्रकाश में लाए ।" निकलंक ने अकलंक से मशवरा किया । 44 1 " लेकिन यह कैसे सम्भव होगा ? तुम तो जानते हो कि इस समय पूरे भारत वर्ष पर बौद्धों का अधिपत्य छाया हुआ है । शासक और प्रजा सभी उसके समर्थक हैं । जैन धर्म के वे विरोधी हैं । फिर उनकै स्तूपों, मठों में जाकर विद्या प्राप्त करना अति कठिन है । वहाँ कड़ी परीक्षा के बाद ही अध्ययन के लिए प्रवेश दिया जाता है । वे आजकल असहिष्णु और अनुदार बन गए । अतः हमारा प्रवेश पाना कठिन ही नहीं असंभव है । अकलंक ने परिस्थिति का विश्लेषण किया । "क्यों न हम वेश बदल कर निरामूर्ख अशिक्षित बनकर वहाँ प्रवेश प्राप्त करें ?" निकलंक ने सलाह दी । । "1 1 दोनों भाईयों ने यही उपयुक्त समझा और अनपढ़ की भाति बौद्ध पाठशाला में प्रवेश प्राप्त कर लिया । वे बाह्य व्यवहार में पूर्ण बौद्ध सा आचरण करते रहे और अंतरंग में जैन धर्म के ही आस्थावान बने रहे । दोनों ने मन लगाकर बौद्ध ग्रन्थों का अध्ययन किया । दोनों भाईयों को यह वरदान था कि अकलंक यदि किसी बात को एक बार ही सुन लेते या पढ़ लेते तो उन्हें पूरी तरह याद हो जाता और निकलंक को वही ज्ञान दो बार के सुनने या पढ़ने से याद रहता । उनके इस स्मरण ज्ञान से उन्हें एक संस्थ और दो संस्थ की पदवियों से विभूषित किया गया । वे इस तरह छद्मवेश धारण किए रहे कि अन्य किसी साथी छात्र को मालूम ही नहीं हो ४५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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