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________________ XXXXXXXपरीषह-जयीxxxxxxxx एवं मुनि वचनों की सत्यता पर विश्वास करने एवं शुभोदय से पुत्र की प्राप्ति हुई थीं। आज उसे पति के गृह त्यागने पर उतनी ही घृणा और अश्रद्धा हो गई । उसे रह रहकर मुनि नयन्धर पर क्रोध आ रहा था । जिन्होंने उनके पति को यौवन में ही दीक्षा दे दी थी । उसे यह पूर्वाग्रह बँध गया था कि उसके पति को मुनि ने यदि समझाया होता तो वे मुनि न बनते । उल्टे इन्होंने तो मेरे पति के वैराग्य भाव को उकसाया है । उसके मन में मुनि के प्रति छेप की गांठ बंध गई । उसे अपने पति पर भी क्रोध आ रहा था जो इस वैभव को छोड़कर असमय में ही घर छोड़ गया था । उसे लगता था कि उसके पति ने पलायन किया है । इस प्रकार जयावती ने मन में मुनि महाराज एवं अपने पति सिद्धार्थ-जो अब मुनि अवस्था में थे , उनके प्रति निरन्तर आर्त-रौद्र भाव पनपने लगे । मुनियों के प्रति उसके मन में जो श्रद्धा भक्ति थी वह घृणा में तो बदल ही गई थी । उसने अपनी हवेली में मुनियों का आना ही बंद करा दिया । उसे जैनमुनि के नाम से चिढ़ सी हो गई । जया जैनधर्म से विमुख होने लगी । उसके मन में तो मुनि नयन्धर और सिद्धार्थ मुनि से बदले की भावना प्रज्वलित होने लगी । पुत्र मोहने उसे कितना पतित बना दिया । समय गुजरने लगा बालक सुकोशल दूज के चाँद सा वृद्धिगत होने लगा । सेठानी जयावती ने सुकोशल के लालन पालन में कोई कसर नहीं रखी । उसकी सुख सुविधा के सारे साधन हवेली में ही उपलब्ध कराये गये । कोमल सुकोशल ने हवेली में ही विद्याध्ययन कर ज्ञान प्राप्त किया । उन्हें विद्याध्ययन के साथ गीत संगीत, चित्रकला, व्यापार आदि की ऊँची शिक्षा प्राप्त कराई गई । तीव्र बुद्धि के किशोर सुकोशल की बुद्धि के समक्ष सभी ज्ञान-विज्ञान एवं कला नतमस्तक थे । किशोर सुकोशल ने यौवन में पदार्पण किया। उनके चेहरे पर यौवन और ब्रह्मचर्य की दीप्ति झिलमिलाने लगी। यौवन का बासंती निखार उनके अंग-अंग से झलकने लगा। इस यौवन में उच्छृखलता नहीं थी पर विनय-विवेक का विकास था। उमड़ती बरसाती नदी का उफान नहीं था.. पर शरदकालीन सरिता का कलकल नाद था। बसंत की कामुकता नहीं थी पर बसंत की शीतल मंद समीर की संगीतात्मका के स्वर प्रस्फुटित थे। यौवन ने सुकोशल को और भी नम्र बना दिया था। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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