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________________ Xxxxxxxx परीषह-जयीxxxkritik श्रोतागण प्रवचन पूर्ण होने पर गुरू वंदन-भक्ति कर विदा हो रहे थे । सभी श्रोताओं के चले जाने पर भी एक महिला अभी भी अपने स्थान पर बैठी थी । अभी भी वह महाराज के प्रवचनों में खोई थी । वह स्त्री थी अयोध्या के नगर श्रेष्ठी सिद्धार्थ की सेठानी जयावती । - "महाराज मेरे विवाह को ३ वर्ष हो गये । मेरी गोद अभी तक नहीं भरी।" सजल नेत्रों से नत मस्तक होकर सेठानी ने अपने अंतर की व्यथा व्यक्त की। __"बेटी ये सब कर्मों के फल हैं । सम्पत्ति सन्तान मान-मर्यादा आदि सभी पुण्य कर्म के फल हैं । सेठानी तुम्हारे पति सिद्धार्थ की तुम बत्तीस पत्नियाँ हो। सभी रूप गुण में अद्वितीय हो । पर किसी के सन्तान न होना यह भी सिद्धार्थ सेठ एवं तुम्हारी बहनों के कर्मों का ही परिणाम है । " अवधिज्ञानी महाराज ने जयावती को उनके परिवार की बातें बतलाई । महाराज को सब कुछ कैसे पता चला ? अरे ये तो अन्तर्योगी हैं । सोचते हुए जयावती उनके चरणों में लोट गई । "जयावती उत्तम पदार्तो की प्राप्ति के लिए सच्चे देव-शास्त्र-गुरू धर्म पर श्रद्धा आवश्यक है । ऐसी श्रद्धा ही सात्विकता को जन्म देती है । जयावती तुमने पुत्र प्राप्ति के लोभ में कुदेवों की पूजा अर्चना वंदना की है । अयोग्य उपायों का सहारा लिया है । अहिंसक मार्ग से च्युत हुई हो । अतः उत्तम सुख कैसे मिल सकेगा ? यज्ञादि हिंसक कृत्यों को त्याग कर सच्चे जैनधर्म पर श्रद्धा लाओ । विश्वास रखो सभी उपलब्धियां शुभ कार्यों से निर्मित शुभ कर्मों से ही संभव हैं ।" कहते हुए मुनि महाराज ने जयावती को सद्धर्म की ओर प्रेरित किया । "क्षमा करें महाराज मैं कुपथ पर थी । मैंने अनेक देवी देवताओं को पूजा है । अनेक यज्ञादि द्वारा जीवहिंसा की है । मैं गलत मार्ग पर थी । आपने मेरी आँखें खोल दी हैं । मैं आज से प्रतिज्ञा करती हूं कि जैनधर्म जैनागम जैनमुनि के अलावा किसी भी कुदेव की शरण नहीं जाऊंगी ।" । ___जयावती को बड़ा आश्चर्य और श्रद्धा हुई । आश्चर्य इसलिए कि महाराज ने उसके इन कृत्यों को कैसे जाना ? और श्रद्धा कि महाराज कितने अवधिज्ञानी एवं सन्मार्ग पर लगाने वाले हैं । उसकी श्रद्धा जैनधर्म पर दृढ़ हो गई । उसने उसी समय महाराज श्री से श्रावक के अणुव्रतों को ग्रहण किया । .." बेटी तू जैनधर्म पर सच्ची श्रद्धान्वित हुई है । ठीक सात वर्ष के पश्चात तेरे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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