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________________ XXXXXXXX परीषह-जयीxxxxxxxx एवं व्रत दिलाये थे । इसके शुभ भाव बनने से यह इस जन्म में इस विप्रवर्य की कन्या हुई है । इसके धर्म के संस्कार जागृत हुए । इसने उन्हीं के वशीभूत होकर इस जन्म में हम से पंच महाव्रत धारण किए । बस इसी से ये विप्रवर्य हमसे नाराज हैं । आप अब नागश्री को बुलाकर परीक्षण कर लें।" मुनि सूर्य मित्रने अवधिज्ञान से पूर्व भव की कथा सुनादी । "बेटी नागश्री क्या यह सत्य है " राजा ने नागश्री से पूछा । "हाँ, महाराज ! " नागश्री को जातिस्मरण हो आया और उसने जन्मान्तर मैं पढ़ी समस्त विद्या को कह सुनाया । इस चमत्कार को ज्ञान कर नागशर्मा की आँखे खुल गई। महाराज ने संसार की मोहलीला और असारता को जानकर वैराग्य धारण किया । राजपाट अपने पुत्र को सौपने का संकल्प कर दीक्षा लेने का निर्धार किया। नागश्रर्मा ने जैनत्वपर श्रद्धा लाकर दीक्षा लेने का संकल्प किया । नागश्री ने भी आर्यिका के व्रत लेकर आत्मकल्याण का मार्ग अपनाया । __ आज अवन्तिका के नगर सेठ की हवेली दीपमाला के प्रकाश से जगमगा रही थी । बधाइयाँ बज रही थी । गरीबों को वस्त्र-भोजन बाँटे जा रहे थे । आज सेठ सुरेन्द्रदत्त की पत्नी यशोभद्रा ने पुत्र रत्न को जन्म दिया था । हवेली में आज कुलदीपक ने जन्म लिया था । बालक अति स्वरूपवान दिन दूना रात चौगुना दूज के चाँद सा बढ़ने लगा। उसकी मुस्कराहट माँ-बाप के जीवन में बसंत भर देती । बच्चे का लालन-पोषण बड़े लाड़-प्यार से होने लगा । बच्चे का नाम सुकुमाल रखा गया । सचमुच बालक यथानाम तथा गुणवाला था । माँ यशोभद्रा तो उसे किसी की नजर के सामने ही न आने देती । किसी की नजर न लग जाये । यही सोचती । यशोभद्रा को बालक की चिन्ता भी तो थी । उसने जब बालक सुकुमाल गर्भ में था तभी एक अवधिज्ञानी मुनि से पूछा था । "महाराज मेरा गर्भस्थ शिशु पुत्र है या पुत्री ? उसका भविष्य कैसा होगा? वह कुल दीपक होगा ?" महाराज ने अपने ज्ञान नेत्र से भविष्य को देखते हुए कहा - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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