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परीषह - जयी
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पीते हर समय वह यही सोचता कि कैसे गजकुमार से अपनी पत्नी के अपमान का बदला ले | यह आर्तध्यान दिनों दिन पनपकर भयानक वैरभाव के रूप में दृढ़ हो गया । उसकी समस्त चेतना इसी भावना में लगी रहने लगी । वह अनेक उपाय सोचता षड्यंत्र करता लेकिन साधुओं का संग और श्रावकों की निरन्तर उपस्थिति के कारण वह बदला लेने में सफल नहीं हो पाया । लेकिन उसने इरादा नहीं बदला ।
‘“मैं जिन्दगी के अन्तिम क्षण तक, इस नंगे लुच्चे गजकुमार से बदला लेकर रहूँगा । यदि इस जन्म में सफल नहीं हुआ तो अगले जन्म में या भवभवान्तरों में बदला लेकर रहूँगा । "ऐसे ही विचार वह सदैव करता रहता । जब मुनि गजकुमार रिगनार के जंगल में घोर तपस्या में लीन थे, तब पांसुल सेठ भी उन्हें खोजता हुआ गिरनार के जंगलों में पहुँचा । पहली बार अपने दुश्मन को, पत्नी के साथ व्यभिचार करनेवाले गजकुमार को एकान्त में पाकर वह बहुत खुश हुआ । और बड़बड़ाने लगा
“अब बचकर कहाँ जाओंगे ? आज मैं अपनी पत्नी पर किए गए अत्याचार का बदला लूँगा । तुम्हें ऐसा मजा चखाऊँगा कि मौत भी कांप उठेगी | मेरी जिन्दगी भर की ज्वाला आज शान्त होगी ।
पांसुल पागलों की तरह अट्टहास्य कर उठा । दूसरे ही क्षण उसकी आँखों में खून उतर आया । क्रोध और क्रूरता चेहरे पर नाचने लगी । पांसुल ने अपने बदले के रूप में बड़े - बड़े लोहे के कीले गजकुमार के हाथों, पांवों में निर्दयता से ठोकने शुरु कर दिए । पांसुल एक-एक कीला ठोकता, दुष्टता से हँसता, बदले की सफलता के संतोष का अनुभव करता । खून की धारायें मुनि गजकुमार के अंग-अंग से बह निकली, पर वे तनिक भी विचलित न हुए । चेहरे पर भय, वेदना क्रोध की कोई छाया न आयी । सहनशक्ति के तप का तेज और बढ़ गया। देह में कीलें ठुक रहे थे । पर मुनि के हर ठोकर पर कर्म झर रहे थे । गजकुमार ने इसे उपसर्ग मानकर समता से सहन किया । देह क्षत-विक्षत हुई, पर आत्मा अष्टकर्म के बन्धन से मुक्त हो गई । पांसुल उन्हें मरा जानकर खुश होता हुआ चला गया, परन्तु पापकर्म के बोझ से इतना दब गया कि भव-भवों तक नरकादि के दुखों को भोगता रहा ।
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देह से मुक्त आत्म लक्ष्मी का वरणकर मोक्ष में स्थान पाने वाले गजकुमार जन्म मरण से मुक्त हो गए । तप की अग्नि में समस्त कर्म भस्म हो गए ।
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