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Arrivandrt परीषह-जयीxxxxxxxx जीवन की अतीत की किताब पढ़ने लगा । अपने व्यभिचारी जीवन की सारी घटनाओं पर विचार करने लगा । हर घटना का एक-एक दृश्य उसके मन पर छाने लगा । आँखों के सामने तैरने लगा । उसने किन-किन स्त्रियों के साथ दुराचार किया था उनकी तस्वीरें उसके सामने दृश्यमान होने लगीं । उनके चेहरे की मजबूरी, आँखों का भय साकार होकर उभरने लगे । उसका मन पहली बार इन दुष्कृत्यों से दुखी होने लगा । इस दुख ने उसमें आत्मग्लानि उत्पन्न की । पश्चाताप की सरिता हृदय को भिगोने लगी । उसका हृदय दुख से कातर हो उठा। उसने मन ही मन उन सभी नारियों की क्षमा याचना की जो उसकी हवश की शिकार हुई थी | उसकी आँखों से अश्रु की धारा बह निकली । पश्चाताप के इन आँसुओं ने उसके हृदय को पवित्र बना दिया ।
“महाराज ! मैं बड़ा पापी हूँ । मैंने अब तक का जीवन व्यभिचार में खो दिया । भोगों की अग्नि में मैं जलता रहा । " गजकुमार ने अपने गंदे अतीत की किताब भगवान के सामने पढ़ कर सुना दी । एवं याचना करते हुए कहा - “प्रभु अब मैं इस नारकीय जीवन से मुक्त होना चाहता हूँ । मैं पुनः उस अग्नि के सम्पर्क में नहीं जाना चाहता । मैं आपके समक्ष आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत का स्वीकार करता हूँ। मैं दीक्षा धारण करना चाहता हूँ | "गजकुमार की वाणी का खनकता सत्य , आँखों के बहते आँसुओं की पवित्रता एवं दृढ़ निश्चय देखकर भगवान ने उसे दीक्षा की अनुमति दी । पर , माँ-बाप की आज्ञा प्राप्त करने का आदेश भी दिया ।
__“पिताजी माताजी मैं आपसे कुछ आदेश लेने आया हूँ । "भगवान के प्रवचन से लौटने पर गजकुमार ने अपने मात-पिता से करबद्ध प्रार्थना की ।
“क्या बात है बेटे ? तुम्हारा चेहरा प्रतिदिन की भांति प्रफुल्लित क्यों नहीं ? क्या अस्वस्थ हो ? या किसी ने कुछ कह दिया है ? " राजा ने जिज्ञासा से पूछा ।
__“नहीं पिताजी ऐसा कुछ भी नहीं । इस छोटी सी जिन्दगी में मैंने बहुत से पापकर्म किए हैं । मैंने भोग को सर्वस्व मानकर जीवन ही नष्ट कर लिया है । मैं महापापी हूँ । इस पापकर्म से मुक्त होकर आत्मकल्याण के पथ पर आरूढ़ होना चाहता हूँ । कृपया मुझे दीक्षा लेने की आज्ञा दें । "कहते-कहते गजकुमार ने अपने जीवन की सारी घटनायें सुनाई और रो पड़ा ।
"बेटा इसमें तुम्हारा क्या दोष ? यह तो इस उम्र में होता ही है । फिर
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