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________________ ** *** परीषह-जयीx थे । फिर मैं तो बीस वर्ष का हो चुका हूँ । बस आप दोनों आशीर्वाद दें कि मैं अपने लक्ष्य में सफल होकर लौटू ।' राज कुमार ने कहते-कहते माँ-बाप के चरणों का स्पर्श किया । महाराज वासुदेव और रानी गन्धर्वसेना ने गजकुमार के दृढ़ निश्चय को जानकर उसे छाती से लगाकर आशीर्वाद दिया । महाराज को इस बात का गर्व हुआ कि उनका बेटा वीरता के गुणों से भरा है । माता को भी गर्व हुआ कि उसका दूध आज सार्थक हो गया । दोनों ने कुम-कुम तिलक लगाकर बेटे को आज्ञा दी । राजकुमार युद्ध के वेश में और भी सुन्दर लग रहा था । मानो कामदेव स्वयं वीरता धारण कर प्रस्तुत हुआ था सौन्दर्य और वीरता के इस समन्वय ने उपस्थित जनसमूह का मन जीत लिया । अनेक लोग गजकुमार की सुन्दरता और बहादुरी के गुणगान करने लगे ,और अनेक लोगों की आँखें इस विचार से भीग गई कि इतना सुकुमार राजकुमार युद्ध की भीषणता को कैसे झेलेगा? युद्ध की रणभेरी के स्वर गूंज रहे थे । उन स्वरों को सुन सैनिकों के शरीर युद्ध के लिए कसमसा रहे थे । कुमारी कन्यायें और सुहागने सैनिकों को कुम-कुम का तिलक कर रही थी, और आंसुओं का अर्ध चढ़ा रही थीं । वीर माता गन्धर्वसेना ने अपने बेटे के हाथ में तलवार देते हुए पुनः उसके दीर्घ जीवन और विजय की कामना की । हजारों कण्ठों से विजय की कामना के गीत फूट पड़े । वीरों की आरती उतारी गई । वीरों के मन उत्साह और जीत की प्रेरणा से उभर रहे थे । . बहादुर गजकुमार के नेतृत्व में चतुरंगिणी सेना रणवाद्य का घोष करती हुई किले से बाहर युद्धभूमि की ओर बढ़ने लगी । सेना की गति ऐसी लग रही थी ,जैसे अपने नागपाश में शत्रुओं को बांधने निकल पड़ी हो । युद्ध का मैदान दोनों ओर की सेनाओं की मुठभेड़ के कारण धूल से आच्छादित हो गया । धरती से उठी धूल ने आकाश के सूर्य को भी धूमिल कर दिया । हाथियों की चिघाड़, घोड़ों की हिनहिनाट और सैनिकों के चीत्कार से सारा वातावरण कोलाहलमय हो गया । दोनों ओर से तीव्र प्रहार हो रहे थे । अनेक घड़ से कटे मस्तक भूलुंठित हो रहे थे । अनेकों के शरीर क्षत-विक्षत हो रहे थे । किसी का हाथ, किसी का पांव कट चुका था । शरीर से रुधिर के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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