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________________ परीपह-जयी "देवरजी ! यदि तुमने मुनिराज की वंदना की होती तो तुम्हारे भाई इसतरह घर छोड़कर नहीं जाते। सोमदत्ता ने कुछ क्रोध उपेक्षा से कहा । "" " इसमें मैं क्या करूँ ? वह मूर्ख था अपने धर्म को छोड़ नंगों के धर्म में घुस गया । " तिरस्कार से वायूभूति ने उत्तर दिया। 44 'चलो देवरजी ! हम लोग चलकर उन्हें समझाकर वापिस लौटा लावें । " आग्रह से उसने वायुभूति का हाथ पकड़ लिया । "छोड़ मेरा हाथ। उसने घर छोड़ा है। मैं क्यों समझाने जाऊँ । अच्छा है कि पर धर्म में जाने वाला मर जाये।" कहते-कहते वायुभूति ने भाभी को लात मारकर अलग कर दिया। देवर की लात खाकर सोमदत्ता का क्रोध भड़क उठा। उसने मन ही मन संकल्प किया कि इस लात मारने का बदला वह अवश्य लेगी। चाहे मुझे कितने ही भव क्यों ने लेने पड़ें। सोमदत्ता इसी आर्त- रौद्र ध्यान में निरंतर बदले की भावना से जलने लगी। उसे अब पति के जाने से अधिक पाद - प्रहार की पीड़ा थी । बदला लेने की तीव्रतम लालसा दृढ़ बैरभाव में जमती जा रही थी। उसन बैरभाव से ग्रसित होकर यह निश्चय किया कि "मैं जब तक पाद प्रहारी देवर के हृदय का मांस भक्षण नहीं करूँगी तब तक चैन से नहीं बैठूंगी। चाहे मुझे कई जन्म ही क्यों न लेने पड़ें।" यद्यपि वायुभूति को मुनिनिंदा एवं अपने कुकृत्य की सजा मानों इसी भव में मिल रही थी। अभी कुछ दिन भी नहीं बीते थे कि उसका संपूर्ण शरीर कुष्ट रोग से पीड़ित हो गया। उसकी इस भयानक रोग से मृत्यु हो गई। इसकी प्रसन्नता भाभी को हुई । * * * महाराज मैं लुट गया। बरबाद हो गया । "नागशर्मा ने रोते-बिलखते हुए चम्पापुरी के महाराज के सामने चिल्लाते हुए कहा । " 44 'क्या हुआ ? विप्रदेव! शांत होइए।" महाराज ने धीरज बँधाते हुए कहा । "महाराज ! यहाँ एक नंगे बाबा घूम रहे हैं। वे बड़े धूर्त लगते हैं। उन्होंने किसी मोहिनी विद्या से मेरी पुत्री नागश्री को बरगला लिया है ... वे कहते हैं- यह मेरी पुत्री है" पुनः रोते हुए ब्राह्मण ने घटित घटना सुनाई। पुनः बोला " मुझे न्याय Jain Educationa International १४ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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