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________________ xxxx परीषह-जयी*-*-*-***-*-*पधारे । सबने मुनिश्री के दर्शन वंदन का लाभ प्राप्त किया । "श्रावकजनो! जीवन की उपलब्धि आत्मा को जानना है । जिसने इस आत्माके निजतत्व को जाना उसने ही सबकुछ जाना । पुद्गल शरीर और अनश्वर आत्मा का संबंध यद्यपि अनादिकाल से हैं । ये दोनों नितांत भिन्न-भिन्न हैं । पर अमूढ़ता के कारण हम इन्हें एक मान कर आत्मा को ही भूल गये है | शरीर को तो सँवारा –पर आत्माकी उपेक्षा करते रहे । यह आत्मा ही स्वतन्त्र एवं निश्चल है । यह अक्षय ,अनन्त ,अव्यय है । वास्तव में हर आत्मा में परमात्मा स्वरूप है | पर मिथ्यात्व ,कषाय के अंधेपन के कारण हम इस सत्य को जानही नहीं सके । जब हमें भेदविज्ञान दृष्टि प्राप्त होती है । तब सब कुछ स्पष्ट हो जाता है । जिसकी यह दृष्टि सम्पन्न हो जाये फिर वह संसार के विषय कषाय से विरक्त हो जाता है । यह विरक्ति की भावना ही मनुष्य को मुक्ति के द्वार तक पहुँचाती है । "महाराजश्रीने दर्शनार्थियों को संबोधित करते हुए धर्मके रहस्य को संक्षेप में समझा कर.सबको धर्म लाभ कहा ।। महाराज के प्रवचनों से सेठ वृषभदास इतने प्रभावित हुए कि उसी समय उन्होंने संसार को त्यागने का संकल्प व्यक्त कर महाव्रत धारण करने का भाव महाराज श्री के समक्ष व्यक्त किया । पत्नी जिनमती भी पति के पचिन्हों पर ही चलने को तैयार हो गई। दोनों ने अपना सबकुछ बेटे -बहू को सौंप कर दीक्षा लेने का संकल्प दोहराया । सुदर्शन और मनोरमा के ही नहीं सारे उपस्थित जनसमूह की आँखें छलछला उठी । पर अब वौराग्य को राग रोक न सकता था । सेठ वृषभदास एवं सेठानी जिनमती मुनि-आर्यिका दीक्षा धारण कर तप में लीन हे गये । “सुनिये ...सुनिये "एक दासी ने कपिल के द्वार से गुजरते हुए सुदर्शन को रोकने के उद्देश्य से पुकारा । __“कहो क्या है दासी ? क्यों पुकार रही हो ? " सुदर्शन ने रुकते हुए जिज्ञासा से पूछा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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