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________________ xxxrdxxxपरीपह-जयी*-*-* -* सुदर्शन सागर " हे नाथ आज रात्रि के अन्तिम पहर में मैंने कुछ विशेष स्वप्न देखे हैं। जिनमें मैंने सुदर्शन मेरू, कल्पवृक्ष ,देव भवन, समुद्र एवं अग्नि को देखा है । इन स्वप्नों को देखने के पश्चात मुझे अनायास अत्यन्त प्रसन्नता हुई है । "सेठानी जिनमती ने दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर वृषभदास के कक्ष में प्रवेश कर उनके निकट बैठते हुए स्वप्न चर्चा की । ____ "प्रिये ये तो बहुत ही उत्तम स्वप्न हैं । निश्चित ही हमें किसी महान उपलब्धि की प्राप्ति होगी । चलो हम अभी उद्यान में स्थित जिनमंदिर चलें । और वहाँ विराजमान अवधिज्ञानी मुनिश्री सुगुप्त जी से इन स्वप्नों का फल ज्ञात करें।" सेठ वृषभदास ने प्रसन्नता से जिनमती सेठानी को मुनि महाराज के दर्शनार्थ चलने को प्रोत्साहित किया । सेठ वृषभदास ,जिनमती सेठानी के साथ चम्पापुरनगरी के उद्यान में विराजित सुगुप्त महाराज के दर्शन के लिए अपने रथ में निकल पड़े । उन्होंने भगवान जिनेन्द्र की अष्ट द्रव्य से पूजा की, एवं मुनि महाराज की श्रद्धासहित वन्दना की । महाराज ने धर्मलाभ कहते हुए आशीर्वाद दिया । महाराज ने वहाँ बैठे हुए श्रावकों को उद्बोधन करते हुए पुण्य के फल की चर्चा की ,और उत्तरोत्तर धर्म कार्य की प्रेरणा दी । जीवन का अन्तिम सुख ,पूर्ण त्याग द्वारा कर्मक्षय कर मुक्ति प्राप्त करना है । प्रवचन के पश्चात सेठ वृषभदास ने जिनमती सेठानी द्वारा देखे गए स्वप्नों का महाराज के समक्ष वर्णन किया । महाराज ने कुछ क्षण मौन रहकर अपने ज्ञान से विचार कर स्वप्न के फल को बताते हुए कहा - "हे श्रेष्ठीवर्य तुम्हारी पत्नी ने जो स्वप्न देखे हैं । वे अति उत्तम स्वप्न हैं । सेठानी के गर्भ में ऐसा पुण्यशाली महान जीव अवतरित हुआ है । जो महान पुण्यात्मा है । सुमेरू दर्शन उसकी धीरता का प्रतीक है । कल्पवृक्ष इस तथ्य का द्योतक है कि वह सम्पत्तिवान और दानी होगा । देवभवन के दर्शन यह सूचित करते हैं कि वह देवों द्वारा भी वन्दनीय होगा । समुद्र दर्शन इस तथ्य का प्रतीक है कि तुम्हारा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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