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________________ परीषह - जयी तप-ध्यान द्वारा कर्मों की निर्जरा करके मोक्षसुख का अधिकारी बनता है । यही अनंत सुख आत्मा से परमात्मा बनने की यात्रा है ।' गणधरस्वामी ने अपना लाक्षणिक शैली में मुक्ति का पथ निर्देशित करते हुए कहा । लोग मंत्रमुग्ध होकर अमृतवाणी का पान कर रहे थे । आज की इस भीड़ का कारण और भी था । आज गणधरस्वामी से जम्बूकुमार, उनके माता-पिता एवं नवविवाहिता चारों पत्नियाँ प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले थे । प्रवचन के पश्चात महाराज श्रेणिक ने अपूर्व उत्साह के साथ जंबूकुमार का महाभिनिष्क्रमण का उत्सव मनाया। सभी दीक्षार्थियों की अपूर्व नगर यात्रा निकाली गई । पूरा शहर ध्वजा - पताका, बंधनवारों से सजाया गया । पूरे शहर में जैनधर्म की जयघोष के नाद गूंज उठे । सजे-धजे हाथियों पर पूर्ण श्रृंगार से सुशोभित जंबूकुमार एवं सभी दीक्षार्थी ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो स्वयं इन्द्र धरती पर अवतरित हुआ है । उनकी शोभा कामदेव को भी लजा रही थी । वधुओं का रूप एवं श्रृंगार इन्द्राणी के सौन्दर्य को भी फीका कर रहा था । लगता था, कामदेव एवं रति का यह जोड़ा नगर विहार को उतरा है । स्वर्ग के देवता भी पुष्पवृष्टि कर रहे थे । जयघोष का नाद गूंज रहा था । पर इस शोभायात्रा का प्रभाव यही था कि इस अपूर्व शृंगार के बीच भी वैराग्य का भाव उमड़ रहा था । श्रृंगार जैसे स्वयं वैराग्य के समक्ष लजा रहा था । 46 देखो कितने सुन्दर लग रहे हैं हमारे जंबूकुमार " एक नागरिक दूसरे से कह रहा था । “हाँ-हाँ कामदेव को लजा रहे हैं । " दूसरे ने उत्तर दिया । "देखो इन नववधुओं को अरे अभी तो हाथ के कंगन व मेंहदी भी नहीं छूटी । इनका रूप तो देखो ” स्त्रियाँ परस्पर में नववधुओं के रूप-सौन्दर्य का खान कर रही थीं । 2 "" "बिचारी इन्होंने देखा ही क्या है ? संसार का सुख ही कहाँ जाना है । कितनी कोमल है | क्या ये साध्वी जीवन का परिषह सहन कर पायेंगी । अनेक तर्क-वितर्क नर-नारी अपने विचार भाव व्यक्त करते हुए कर रहे थे । "देखो हमारे सेठ-सेठानी भी तो इस अतुल सम्पत्ति को तृणवत त्याग कर उसी पथ पर जा रहे हैं । " एक नागरिक बोला “हाँ भाई सच है । धन से अधिक महत्वपूर्ण धर्म है । पर हम तो उसी १२९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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