SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Xxxxxxxxपरीषह-जयीxxxxxxxx महाराज श्रेणिक ने सबका उचित स्वागत किया । जंबूकुमार का सिर चूमकर उन्हें गले से लगाया । कुछ समय वहाँ रहकर सबलोग अपने स्थानों को विदा हो गए । जंबूकुमार ने वहीं से महाराज श्रेणिक के साथ अपने नगर राजगृही की ओर प्रयाण किया । राजगृह नगर में प्रवेश करने से पूर्व उन्हें ज्ञात हुआ कि उद्यान में सुधर्म स्वामी अपने पांच सौ मुनि शिष्यों के साथ विराजमान हैं । महाराज श्रेणिक और जंबूकुमार के रथ उपवन की ओर मोड़ दिये गये । सबने मुनि महाराज के दर्शन किए, वन्दना और अर्चना की । महाराज ने सब को धर्मलाभ कहते हुए आशीर्वाद दिया । “महाराज आपके दर्शन करते ही मेरे हृदय में आपके प्रति अनायास स्नेह उमड़ पड़ा है | इसका क्या कारण है ? भक्ति के साथ मेरे हृदय में यह प्रेम भाव क्यों छलक रहा है । '' जंबूकुमार ने महाराज के समक्ष अपनी अन्तर की भावना को व्यक्त किया । . "जंबूकुमार यह स्वाभाविक है । मेरा और तुम्हारा पिछले पांच भवों से भाईयों का सम्बन्ध रहा है । "महाराज ने भवदत्त और भवदेव से लेकर पिछले जन्म तक की कहानी सुनाते हुए कहा- “तुम विद्युन्माली देव के अवतार जंबूस्वामी हुए और मैं स्वर्ग ये चयकर संवाहन नगर के राजा के यहाँ सुधर्म नामक पुत्र के रूप में जन्मा । मेरे पिताजी भगवान महावीर के समवशरण में उनके उपदेश से प्रभावित होकर दीक्षित हो गए और वे भगवान महावीर के चतुर्थ गणधर हुए । मैंने भी संसार को असार जान कर ,यौवन को तप का श्रेष्ठ समय मानकर दीक्षा ग्रहण की । और मुझे भगवान महावीर के पांचवें गणधर बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । वहीं समवशरण से मैं विहार करते हुए यहाँ आया हूँ । अतः स्वाभाविक है कि मुझे देखकर तुम्हारे हृदय में यह प्रेम उमड़ आया है । " महाराज सुधर्म के द्वारा अपने जीवनवृत को जानकर एवं धर्मश्रवण कर जंबूकुमार अपने महल में लौट आए। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003695
Book TitleParishah Jayi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherKunthusagar Graphics Centre
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy