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________________ प्रथम अधिकार :: 29 से प्रस्थ (धान्य नापने का बर्तन) बनाना चाहता है अथवा चावल पककर भात अभी तैयार नहीं है तो भी कार्य किया तो हो सकेगा, यही समझकर वह लकड़ी को प्रस्थ व चावल को अभी से भात कहने लगता है। इस प्रकार के विषय नैगम नय के विषय समझने चाहिए। कहीं तो ऐसा संकल्प बीत जानेवाले पर्याय के सम्बन्ध में होता है और कहीं आगे होनेवाले अभिप्राय से होता है और कहीं शुरू हो जाने पर पूर्ण न होने तक होता है। नैगम के इन तीन भेदों को भूत नैगम, भावी नैगम व वर्तमान नैगम कहते हैं। यदि वही विषय वर्तमान में पूर्णतया उपस्थित हो तो फिर नैगम नय का विषय नहीं रहता। संग्रह नय का लक्षण भेदेऽप्यैक्यमुपानीय स्वजातेरविरोधतः। समस्तग्रहणं यस्मात् स नयः संग्रहो मतः॥45॥ __ अर्थ-पूर्व विशेषता के कारण भेद रहते हुए भी स्वजाति-धर्म का परस्पर विरोध न रहने से एकता मानता हुआ जिस भावना के वश प्राणी समस्त अन्तर्भेदों को एक रूप से ग्रहण करे उसे संग्रहनय कहते हैं। व्यवहार नय का लक्षण संग्रहेण गृहीतानामर्थानां विधिपूर्वकः।। व्यवहारो भवेद्यस्माद् व्यवहारनयस्तु सः॥46॥ अर्थ-संग्रहनय के द्वारा जिस भेदक धर्म को अमुख्य मानकर विषयों में अभेद कहा गया था उसी भेदक धर्म की मुख्य भावना होने पर संग्रह के विषयों को मनुष्य भिन्न-भिन्न जानने लगता है-यही व्यवहार नय है। संग्रह के समय जिस भेदक धर्म की उपेक्षा की जाती है उसी की व्यवहार नय के समय अपेक्षा या मुख्यता रखी जाती है और जिस सामान्य या सजातीय धर्म की संग्रह में मुख्यता रखी जाती थी, उसे यहाँ गौण समझना पड़ता है। व्यवहार विधिपूर्वक ही होता है - ऐसा कहने का भी यही तात्पर्य है। संग्रह व व्यवहार के क्रम से उदाहरण देखिए __ चैतन्य तथा जड़त्व आदि विशेष लक्षणों के रहने से परस्पर भेद होने पर भी सत्ता धर्म को यावद् द्रव्यों में पाकर 'सर्वं सत्' अर्थात् सभी सद्रूप हैं-ऐसा कहना 'संग्रह नय' कहलाता है। इसी सन्मात्र को, चैतन्यादि धर्मों में भेद देखकर सत्ता की अपेक्षा करने से जीव-पुद्गल आदि अनेक द्रव्य हैं, ऐसा कहना 'व्यवहार नय' है। जीवमात्र के संसार व सिद्धत्व आदि विशेष धर्म न दिखने पर चैतन्यमात्र की सर्वत्र व्यापकता जानकर यावज्जीवों को एक जीवद्रव्य कहना संग्रह नय है। चैतन्य की व्यापकता न गिनते हुए संसार व सिद्धत्व आदि विशेष धर्मवश जीवों में संसारी व सिद्ध आदि भेद कहना व्यवहार नय है। जहाँ तक विभाग हो सकते हैं वहाँ तक ये दोनों नय इसी प्रकार प्रवृत्त होते हैं। 1. 'भेदेनैक्यमुपानीय' यह छपी पुस्तक में पाठ था। 2. स्वजात्यविरोधेनैकत्वोपनयात्समस्तग्रहणं संग्रहः । बुद्ध्यभिधानानुप्रवृत्तिलिंगसादृश्यं स्वरूपानुगमो वा जातिः। रा.वा. 1/33, वा. 5 3. "अतो विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः। संग्रहगृहीतोऽर्थस्तदानुपूर्येणैव व्यवहारः प्रवर्तते इत्ययं विधिः।" रा.वा, 1/33, वा. 6 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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