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________________ नौवाँ अधिकार :: 339 एको ज्ञाता सर्वदेवाद्वितीयः स्याद् द्रव्यार्थादेशतो मुक्तिमार्गः॥21॥ अर्थ-जो जीव को सम्यग्दर्शनरूप, सम्यग्ज्ञानरूप तथा सम्यक्चारित्ररूप अलग-अलग पर्यायों द्वारा अलग-अलग हुआ मानना है वह पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से मोक्षमार्ग है। इन सभी पर्यायों में ज्ञाता जीव सदा एक ही रहता है। पर्याय तथा जीव में कोई वस्तु भेद नहीं है। इस प्रकार रत्नत्रय से आत्मा को अभिन्न देखना द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से मोक्षमार्ग है। अर्थात् रत्नत्रय जीव से अभिन्न है अथवा भिन्न है ऐसा मानना द्रव्यार्थिक का तथा पर्यायार्थिक का स्वरूप है, परन्तु रत्नत्रय में भेदपूर्वक अथवा अभेदपूर्वक प्रवृत्ति होना व्यवहार तथा निश्चय मोक्षमार्ग है। इससे ऊपर के श्लोकों में निश्चय रत्नत्रय का जो समर्थन किया है उसका भी यही तात्पर्य है कि भेदाभेद प्रवृत्ति को व्यवहार तथा निश्चयरूप रत्नत्रय कहना चाहिए और रत्नत्रय के भेदाभेदरूप मानने को पर्यायार्थिक तथा द्रव्यार्थिक नय कहना चाहिए। तत्त्वार्थसार ग्रन्थ का प्रयोजन (वसन्ततिलका छन्दः)तत्त्वार्थसारमिति यः समधीर्विदित्वा निर्वाणमार्गमधितिष्ठति निष्प्रकम्पः । संसार-बन्धमवधूय स धूतमोह श्चैतन्यरूपमचलं शिवतत्त्वमेति ॥22॥ अर्थ संसार से उपेक्षित हुआ जो बुद्धिमान प्राणी इस तत्त्वार्थसार ग्रन्थ को अथवा तत्त्वार्थ के सार को उक्त प्रकार से समझकर निश्चलता के साथ मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होगा, वह मोह का नाश करता हुआ, संसार-बन्धन को दूर करके निश्चल चैतन्यस्वरूपी मोक्षत्व को प्राप्त करता है। ग्रन्थकर्ता की नम्रता वर्णाः पदानां कर्तारो वाक्यानां तु पदावलिः। वाक्यानि चास्य शास्त्रस्य कर्तृणि न पुनर्वयम्॥23॥ अर्थ-वर्णों से पद बन गये हैं। पद वाक्यों को बनानेवाले हैं। वाक्यों से यह शास्त्र बन गया है। कोई यह न समझे कि हमने (अमृतचन्द्राचार्य ने) इस शास्त्र को रचा है। टीकाकार की विनम्र-अभिव्यक्ति-जब कि सम्पूर्ण लेखन ग्रन्थकार का है, फिर भी वह अपनी नम्रता प्रकट कर रहा है, हम सिद्धान्त को न समझते हुए ही इस ग्रन्थ का थोड़ा-सा तात्पर्यार्थ दिखाकर कर्तृत्व का परिहार और अधिक किन शब्दों में कहें? इसलिए हम अब यही कहेंगे कि यदि हमारे लिखने में कुछ तात्पर्यार्थ सत्य हो तो वह हमारे गुरु, जो बीसवीं सदी के प्रथम दिगम्बर जैनाचार्य चारित्र चक्रवर्ती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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