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________________ नौवाँ अधिकार :: 335 हो सकती है? इसलिए इस दशा की उत्पत्ति प्रथमावस्था में मानी गयी है और उत्तर की निश्चय दशा का कारण मानी गयी है। यह दशा हो जाने पर जब साधु स्वतत्त्व का श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र करने लगता है तब वह सम्यग्दर्शनमय, सम्यग्ज्ञानमय तथा सम्यक्चारित्रमय स्वयमेव हो जाता है। वह अपने से अभेदरूप रत्नत्रय की दशा है और वही यथार्थ वीतराग दशा होने से निश्चयरत्नत्रयरूप कहलाती है। इस अभेद-भेद का तात्पर्य समझ जाने पर यह बात भी माननी पड़ेगी कि व्यवहार रत्नत्रय यथार्थरत्नत्रय नहीं है, इसीलिए इसे गौण कहते हैं। गौण होने पर भी प्रथम यही उत्पन्न होता है, इसलिए वह उत्तर के लिए उपयोगी है और वर्तमान समय में उपादेय है परन्तु साधु इसमें लगा रहे तो उसका यह व्यवहार मार्ग मिथ्यामार्ग है, निरुपयोगी है। कहना चाहिए कि उसने उसे गौण रूप से न जानकर यथार्थरूप जान रखा है। जो जिसे यथार्थरूप से जाना हुआ मानता है, वह उसे कभी छोड़ता नहीं है, इसीलिए उस साधु का वह व्यवहार मार्ग मिथ्यामार्ग है अथवा अज्ञानरूप संसार का कारण है। इस प्रकार जो साधु व्यवहार को गौण समझकर उसका आलम्बन करना ही नहीं चाहता है वह उभयभ्रष्ट है। उसे व्यवहार के बिना निश्चय की प्राप्ति तो हो ही नहीं सकती है और व्यवहार को गौण मानकर आलम्बन ही नहीं करता है। जो व्यवहार को गौण समझकर आलम्बन नहीं करता वह निश्चय तक पहुँच नहीं पाता-यह बात यद्यपि निर्विवाद है तो भी वह मात्र निश्चय का ही बातों-बातों में आलम्बन करना चाहता है, इसलिए उसे उभयभ्रष्ट कहा है। ऊपर के श्लोकों में अभेदरूप रत्नत्रय का स्वरूप कृदन्त शब्दों द्वारा कृत-भावसाधन शब्दों का अभेद दिखाकर सिद्ध किया। अब आगे क्रियापदों द्वारा कर्ता-कर्मभाव आदिकों में सर्व कारकों के रूप दिखाकर अभेद सिद्ध करते हैं। आत्मा, रत्नत्रय-रूप कर्ता के साथ अभेद पश्यति स्वस्वरूपं यो जानाति च चरत्यपि। दर्शन-ज्ञान-चारित्र-त्रयमात्मैव स स्मृतः॥8॥ ___ अर्थ-जो अपने निज स्वरूप को देखता है, जो अपने जिन स्वरूप को जानता है और जो अपने निज स्वरूप के अनुसार प्रवृत्ति करता है वह आत्मा ही है; इसलिए आत्मा ही दर्शनज्ञानचारित्र रत्नत्रयरूप है। आत्मा, रत्नत्रय-रूप कर्म के साथ अभेद पश्यति स्वस्वरूपं यो जानाति च चरत्यपि। दर्शन-ज्ञान-चारित्र-त्रयमात्मैव तन्मयः॥9॥ अर्थ-जिस निज स्वरूप को देखा जाता है, जिस निज स्वरूप को जाना जाता है और जिस निज स्वरूप को धारण किया जाता है, वही दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय है, परन्तु तन्मय आत्मा ही तो है इसलिए आत्मा ही अभेदरूप से रत्नत्रयरूप है। 1. निश्चयमिह भूतार्थं व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थं । पु.सि., श्लो. 5 2. निश्चयमबुध्यमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते नाशयति करणचरणः स वहिःकरणालसो बालः ॥ पु.सि., श्लो. 50 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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