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________________ 332 :: तत्त्वार्थसार युक्ति मोक्ष सुख की निरुपमता लिंगप्रसिद्धेः प्रामाण्यमनुमानोपमानयोः। अलिंगं चाप्रसिद्धं यत् तत् तेनानुपमं स्मृतम्॥53॥ अर्थ-अनुमान तथा उपमान प्रमाण की प्रामाणिकता-असलियत उनके लिंगों की प्रसिद्धि के अधीन है अर्थात् धूम आदि हेतु और सादृश्य रूपलिंग का जब चक्षु आदि से साक्षात्कार हो जाता है उस समय अनुमान और उपमान प्रामाणिक गिने जाते हैं, परन्तु मोक्ष पदार्थ इन्द्रियों के अगोचर है तथा अगोचरता से उसके सादृश्य का भी ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए मोक्ष अनुपम पदार्थ है। वह उपमान ज्ञान के विषयभूत नहीं हो सकता–समस्त पदार्थों से वह एक विजातीय विलक्षण ही पदार्थ है। मोक्ष सुख की वचन बद्धता प्रत्यक्षं तद्भगवतामहतां तैः प्रभाषितम्। गृह्यतेऽस्तीत्यतः प्राज्ञैर्न छद्मस्थपरीक्षया॥ 54॥ अर्थ-वह सुख अर्हत् केवली भगवान् को साक्षात् प्रत्यक्ष होता है। उन्हीं के कहने से परम्परया आचार्यों ने भी माना है कि मोक्ष में निरुपम सुख है। अल्पज्ञ मनुष्य उसकी परीक्षा करके जब ठहरावे तभी मानना चाहिए-यह बात ठीक नहीं है। अत्यन्त परोक्ष वस्तुओं को भला अल्पज्ञानी क्या ठहरा सकता है? यदि कोई अनुमान अथवा उपमान द्वारा उसे ठहराना चाहें तो उसका सामान्य स्वरूपमात्र ठहर सकेगा। विशेषरूप ज्ञान प्रत्यक्ष के बिना नहीं होता, इसलिए साक्षात् जाननेवाले सर्वज्ञ केवली के वचनों से प्रतीति करनी चाहिए। मोक्ष तत्त्व के श्रद्धान का फल इत्येतन्मोक्षतत्त्वं यः श्रद्धत्ते वैत्युपेक्षते। शेषतत्त्वैः समं षद्भिः स हि निर्वाणभाग् भवेत्॥55॥ अर्थ-इस प्रकार इस मोक्षतत्त्व का जो छहों तत्त्वों के साथ सम्यक् श्रद्धान करता है, उन्हें सम्यक् जानता है और हेयोपादेयता की कल्पना छोड़कर इनमें मध्यस्थ बनता है वही निर्वाण को पा सकता है। इति श्री अमृतचन्द्राचार्य रचित तत्त्वार्थसार में मोक्षतत्त्व का कथन करनेवाला धर्मश्रुतज्ञान हिन्दी टीका में आठवाँ अधिकार पूर्ण हुआ। 1. मोक्ष प्रकरण में सिद्धस्थान का वर्णन करनेवाले दो श्लोक कहीं-कहीं पर अधिक दिख पड़ते हैं। वे ये हैं-"तन्वीमनोज्ञा सुरभिः, पुण्या परमभासुरा। प्राग्भारा नाम वसुधा लोकमूनि व्यवस्थिता ॥ ॥ त्रिलोकतुल्यविष्कम्भा सितच्छत्रनिभा शुभा। ऊर्ध्वतस्थाः क्षितेः सिद्धा लोकान्ते समवस्थिता ।।2 ॥ अर्थ-अतिसूक्ष्म, मनोज्ञ, पुण्यपरमाणुओं से बनी हुई परम देदीप्यमान इस लोक के अन्त में पृथ्वी है। उसका नाम प्राग्भारपृथ्वी है। त्रिलोक के तुल्य वह पसरी हुई है। सफेद छत्र के समान धवलवर्ण तथा ऊर्ध्वमुख छत्र के आकार के समान है, अति शुभ है। उस पृथ्वी भाग के ऊपर लोक के अन्त में मुक्त जीव जाकर ठहरते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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