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________________ 330 :: तत्त्वार्थसार का थोड़े समय के लिए अभाव हो जाए तो जीव मानता है कि मैं सुखी हो गया। उदाहरणार्थ, किसी के सिर पर बोझ रखा है, उस बोझ में वह दु:खी हो रहा है। बोझ उतारकर कन्धे पर रख लेने पर वह अपने को सुखी समझने लगता है। सुख शब्द का यह दूसरा अर्थ हुआ। पुण्यकर्म के उदय से होनेवाले सुख का दृष्टान्त पुण्यकर्म-विपाकाच्च सुखमिष्टेन्द्रियार्थजम्। अर्थ-पुराने कर्मों का परिपाक समय आने पर इन्द्रियों के इष्ट विषय की प्राप्ति होने से जो सुख का संकल्प होता है वह सुख शब्द का तीसरा अर्थ है। जैसे, ठंड के दिनों में अग्नि के पास बैठने से सुख प्रतीत होता है। भूख लगने पर भोजन मिल जाने से, प्यास लगने पर पानी मिल जाने से सुख का अनुभव होता है। उस समय जीव अपने को सुखी मानने लगता है। पहला सुख जो विषय को कहा, उसका मतलब यह था कि सुख के कारण में सुख का उपचार किया है। इस तीसरे अर्थ का यह मतलब है कि उन्हीं विषयों का सम्बन्ध होने पर अपनी आत्मा में सुखोत्पत्ति का अभिमान होता है, इसलिए यह सुख इन विषयों का तथा कर्मोदय का कार्य है। पहला और तीसरा ये दोनों ही सुख-शब्द के अर्थ परस्पर में कारण-कार्य रूप सम्बन्ध रखते हैं, इसलिए एकसे प्रतीत हो सकते हैं, परन्तु वास्तव में एक नहीं हैं। ___ पहले और तीसरे में एक यह भी भेद है कि लाभान्तराय के क्षयोपशम की पहले में अपेक्षा मानी जाती है और दूसरे में सातावेदनीय के उदय की अपेक्षा होती है। अर्थात् विषयों की अनुकूल प्राप्ति लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम का अर्थ है। वह क्षयोपशम होने पर सुख के साधन विषय मिल जाते हैं। असातावेदनीय का उदय हो तो जीव उन प्राप्त हुए साधनों से भी सुखी नहीं होता, परन्तु यह वह स्वीकार करता है कि ये विषय सुखकर हैं, यह प्रथम भेद का अर्थ है। तीसरे प्रकार का सुख हम तब कह सकते हैं जब कि जीव के सातावेदनीय का उदय हो, उसका उदय होने पर जीव सुख-साधनों से सुख उत्पन्न हुआ मानता है। उस समय उसे सुख और सुख-साधन इन दोनों में परस्पर भेद प्रतीति होती है और वह भेदरूप व्यवहार करता है एवं सुख-साधनों का जहाँ सख कहा है वहाँ सुख से, सुख साधन को अभेदरूप देखने की मुख्यता रहती है। यह तीसरे का और पहले का परस्पर अर्थ भेद हुआ। तीसरे व दूसरे में परस्पर क्या भेद है ? इसका उत्तर राग की कृति को तीसरे प्रकार का सुख कहते हैं और द्वेष की कृति को दूसरे प्रकार का सुख कहते हैं। दुःख से तथा दुःखसाधनों से जीव द्वेष करता है, इसलिए द्वेष का फल यह होता है कि दुःखों को और दुःख के साधनों को जीव दूर करता है। दुःख तथा दुःख साधन दूर होते ही जीव अपने को सुखी मानने लगता है। यहाँ पर सुख साधनों के संयोग की अपेक्षा नहीं की जाती है और जो तीसरे प्रकार से सुख कहा है वह रागात्मक है। उसमें सुख साधनों की संयोग की अपेक्षा रहती है। अर्थात् एक तो सुख ऐसा होता है कि जिसमें अनिष्ट संयोग दूर करने की जीव की प्रवृत्ति रहती है और जीव अनिष्ट संयोग के दूर होने से अनिष्ट संयोगजन्य फल का अभाव हुआ मानता है। दूसरा सुख ऐसा होता है कि उसके लिए जीव इष्ट संयोग करने की तरफ प्रवृत्ति करने लगता है और इष्ट संयोग होने पर उस इष्ट संयोग का अपने में फल प्राप्त हुआ मानता है। इन दोनों प्रकार के सुखों में से जो पहले प्रकार का है वह वेदना के अभावरूप दूसरे भेद में गर्भित किया गया है। जो दूसरे प्रकार का है वह सुख, तीसरे भेद में गर्भित होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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