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________________ आठवाँ अधिकार :: 321 ऐसा उत्पन्न होता है कि वह बाण बिना प्रेरणा के ही आगे चलता चला जाता है। इसी प्रकार जीव ने मुक्ति के लिए जो बहुत-सा निरन्तर संयम धारण कर, मोक्ष जाने का भावनारूप प्रयत्न किया था उसी पूर्वप्रयोग के वश शरीर छूटने पर भी सिद्धस्थान की तरफ गति होती है। असंगता रूप हेतु का स्वरूप दृष्टान्त मृल्लेपसंगनिर्मोक्षाद् यथा दृष्टाप्स्वलाम्बुनः। कर्मबन्धविनिर्मोक्षात् तथा सिद्धगतिः स्मृता॥29॥ अर्थ-असंगता का अर्थ है-बन्धन छूटना। बन्धन छूटने से बहुत--सी चीजें नीचे से ऊपर की तरफ आया करती हैं। जैसे, माटी का लेप लगी हुई तूमड़ी लेप गलने-हटने से पानी के ऊपर आ जाती है, उसी प्रकार कर्मबन्धन छूटने पर सिद्ध जीवों की ऊर्ध्वगति होती है। बन्धनच्छेद हेतु का स्वरूप दृष्टान्त एरण्डस्फुटदेलासु बन्धच्छेदाद्यथा गतिः। कर्मबन्धनविच्छेदात् जीवस्यापि तथेष्यते॥30॥ अर्थ- एरण्ड का बोंड़ सूखकर जब फूटता है तब एरण्ड के बीज उसमें से उछलकर ऊपर जाते हैं। उसी प्रकार बन्धनच्छेद होने पर जीवात्मा भी ऊर्ध्व की तरफ गमन करता है। इसलिए विशिष्ट बन्धनच्छेद ऊर्ध्वगति करानेवाला मानना चाहिए। ऊर्ध्व गौरव हेतु का स्वरूप दृष्टान्त यथाधस्तिर्यगूर्ध्वं च लोष्ट-वाय्वग्नि-वीचयः। स्वभावतः प्रवर्तन्ते यथोर्ध्वगतिरात्मनाम्॥31॥ अर्थ-पदार्थों के स्वभाव तर्कणीय नहीं हो सकते हैं। जो जिसका स्वभाव जैसा दिख पड़ता है उसका वह वैसा ही स्वभाव मानना चाहिए। जिस प्रकार माटी, पत्थर आदि का स्वभाव है कि उन्हें कोई रोकनेवाला न हो तो नीचे की तरफ गिरते हैं एवं, वायु का स्वभाव तिरछा चलने का है। अग्नि का स्वरूप ऊर्ध्वगामी है। उसी प्रकार जीव मुक्त होने पर ऊपर जाता है, इसलिए ऊर्ध्वगति जीव का स्वभाव मानना चाहिए। अग्नि का ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने पर वह वायु के झकोरों से तिरछा चलने लगती है। अनेक वायु परस्पर टकराते हैं उस समय वायु का भी ठीक तिरछा गमन नहीं रहता है। पत्थर को ऊपर की तरफ फेंका जाए तो ऊपर की तरफ भी वह चला जाता है। ये सब प्रकार के गमन स्वाभाविक नहीं हो सकते हैं, क्योंकि, इनकी प्रवृत्ति परनिमित्तों से होती है। परनिमित्त न रहने पर इनकी जो गति होती है वह एक प्रकार की ही होती है और वही गति स्वाभाविक समझनी चाहिए। इसी प्रकार कर्माधीन जीव की भी जो गति होती है वह सब औपाधिक समझनी चाहिए। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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