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________________ सातवाँ अधिकार :: 309 ही हैं। पुलाक और कषायकुशील शुरु में सबसे हीन संयमस्थानों में रहता है। कषायकुशील के वे स्थान छूटकर ऊपर के अधिक विशुद्ध भी हो जाते हैं। वहाँ पर पुलाक नहीं पहुँच पाता है। उन स्थानों में कुशील, प्रतिसेवना कुशील तथा वकुश साथ रह सकते हैं। कुछ ऊपर जाने पर वकुश छूट जाता है। उसके ऊपर और भी चलने पर प्रतिसेवना कुशील छूट जाता है। अर्थात् उन उच्च संयमस्थानों में कषाय कुशील ही रहता है। उससे भी असंख्यातों स्थान ऊँचे जाएँ तो वहाँ कषाय कुशील भी नहीं रहता है। इसके ऊपर फिर कषायरहित स्थान है। (8) मरकर स्वर्ग में जन्म लेने के स्थानों को यहाँ उपपाद कहते हैं। उपपाद अलग-अलग साधुओं के अलग-अलग हैं। पुलाक बारहवें स्वर्ग सहस्रार के उत्कृष्ट स्थितिवाले देवों में उपजता है। वकुश और प्रतिसेवना कुशील पन्द्रहवें-सोलहवें आरण-अच्युत स्वर्गों में बाईस सागर स्थिति रखते हुए देव होते हैं। कषाय कुशील और निर्ग्रन्थ तेतीस सागर के आयुवाले अनुत्तर विमानवासी देव होते हैं। यह उपपाद की उत्कृष्ट मर्यादा है। जघन्य देखें तो दो सागर की स्थिति रखते हुए स्वर्ग मे ऊपर कहे हुए चारों ही प्रकार के साधु देव हो सकते हैं। स्नातक का स्वर्ग में उपपाद न होकर निर्वाण ही होता है। इन आठ अनुयोगों द्वारा साधुओं का परस्पर अन्तर जाना जाता है। निर्जरा तत्त्व की श्रद्धा का फल इति यो निर्जरातत्त्वं श्रद्धते वेत्युपेक्षते। शेषतत्त्वैः समं षभिः स हि निर्वाणभाग् भवेत्॥ 60॥ ___ अर्थ-इस प्रकार जो साधु छह तत्त्वों के साथ-साथ निर्जरा तत्त्व की श्रद्धा करता है, जानता है और उससे उपेक्षित होकर मध्यस्थरूप वीतराग चारित्रधारी होता है, वही निर्वाण का भागी होता है। इति श्री अमृतचन्द्राचार्य रचित तत्त्वार्थसार में निर्जरा तत्त्व का कथन करनेवाला धर्मश्रुतज्ञान नामक हिन्दी टीका में सातवाँ अधिकार पूर्ण हुआ॥7॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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