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________________ 302 :: तत्त्वार्थसार लोक के संस्थान को ही संस्थान शब्द से यहाँ पर लेते हैं । वह लोक लोकानुयोग में विस्तार के साथ बताया है, इसलिए लोकानुयोग के अनुसार संस्थान का चिन्तवन करना चाहिए । शुक्लध्यान के भेद शुक्लं पृथक्त्वमाद्यं स्यादेकत्वं तु द्वितीयकम् । सूक्ष्मक्रियं तृतीयं तु तुर्यं व्युपरतक्रियम् ॥ 44 ॥ अर्थ - अत्यन्त मन्द संज्वलन कषाय रह जाने पर जीव जब श्रेणी पर आरुढ़ होता है उस काल में उसके परिणाम अत्यन्त एकाग्र होते हैं । उन परिणामों की एकाग्रता को शुक्लध्यान कहते हैं । उसके चार भेद हैं- (1) पृथक्त्ववितर्कवीचार, (2) एकत्ववितर्कवीचार, (3) सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और (4) व्युपरतक्रियानिवृत्ति । पृथक्त्ववितर्कवीचार का स्वरूप द्रव्याण्यनेकभेदानि योगैर्ध्यायति यत् त्रिभिः । शान्तमोहस्ततोह्येतत् पृथक्त्वमिति कीर्तितम् ॥ 45 ॥ अर्थ- द्रव्यों के जुदे-जुदे भेदों को तीनों योग द्वारा योगी इस ध्यान के समय चिन्तता है, इसलिए इसे पृथक्त्व नाम प्राप्त हुआ है। इस ध्यान का पात्र योगी तब हो सकता है जब कि शान्तमोह हो गया हो। जब तक मोह की अवस्था शान्त नहीं हुई तब तक शुक्लध्यान में प्रवेश नहीं होता है । यह पृथक्त्व विशेषण प्राप्त होने का कारण हुआ । वितर्क विशेषण का कारण Jain Educationa International श्रुतं यतो वितर्कः स्यात् यतः पूर्वार्थशिक्षितः । पृथक्त्वं ध्यायति ध्यानं सवितर्कं ततो हि तत् ॥ 46 ॥ अर्थ - श्रुतज्ञान को वितर्क कहते हैं । श्रुतज्ञान के बारह भेदों में से अन्तिम भेद का नाम दृष्टिवाद है। उसके चौदह भेद कहे गये हैं। उन्हीं को चौदह पूर्व कहते हैं, इसलिए चौदह पूर्व का जिसे ज्ञान हो उसे पूरा श्रुतज्ञानी कहते हैं । श्रुतज्ञानी योगी ही श्रुतज्ञान के आश्रय से श्रेणी के प्रारम्भ से दशवें गुणस्थान के अन्त तक द्रव्य, गुण, पर्याय आदि नाना भेद रूप वस्तुओं का ध्यान करते हैं, इसलिए इस शुक्लध्यान को सवितर्क कहा है । यद्यपि श्रुतज्ञानी ही इसके अधिकारी होते हैं, परन्तु शुक्लध्यान का प्रारम्भ करनेवाले सभी योगी पूर्णश्रुतज्ञानी नहीं हो सकते हैं। इसलिए श्रुतज्ञान की यहाँ के योग्य जघन्य मर्यादा भी बता दी गयी है। वह मर्यादा तीन गुप्ति और पाँच समिति हैं । इसी मर्यादा को आठ प्रवचनमाता नाम भी कहा है। For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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